मेरी बात : मोदी जी ! जो बात आपके ‘मंतरी’ न कह सके, वो राजस्थानी लेखक की ‘ख़ामोशी’ कह गई

कहते हैं- ख़ामोशी में बहुत तेज़ ‘गूंज’ होती है। लेकिन.. इसे सुन वही सकता है, जिसमें उसे सुनने की क्षमता और चाहत हो। 27 अक्टूबर को बीकानेर का रोटरी क्लब के ‘राजस्थानी भाषा समारोह’ में एक ऐसी ही ‘गूंज’ सुनाई दी। जहां राजस्थानी साहित्यकारों की चुप्पियां कुछ ऐसा कह गईं, जो हमारे ‘मंतरी-संतरी’ भी न कह पाये होंगे। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि- ओंकार सिंह लखावत ने राजस्थानी भाषा पर जो कहा, वो चर्चा का विषय बन गया। उनकी टिप्पणी कुछ साहित्यकारों को बुरी लग गई। साहित्य अकादमी से सम्मानित, देश के प्रतिष्ठित साहित्यकार बुलाकी शर्मा ने.. इस विषय पर लिखे लेख पर (यहां CLICK कर पढ़ें) टिप्पणी करके दर्द-ए-दिल साझा किया है। उनका ये दर्द जानें, उससे पहले लखावत साहब के भाषण की वे बातें जान लेते हैं। उन्होंने उस दिन क़रीब 1 घंटा भाषण दिया था, जिसमें राजस्थानी पर उनकी 3 बातें चर्चा का विषय बनीं।

पहली बात- “इस कार्यक्रम के दौरान मैं 6 बार राजस्थानी की मान्यता का जिक्र सुन चुका हूं। मैं पूछता हूं क्या फर्क पड़ जाएगा, जो मान्यता मिल भी जाएगी। आप-हम तब भी वैसे ही कपड़े पहनेंगे, जैसे अभी पहन रहे हैं। होना तो यह चाहिये कि हम राजस्थानी में इतना लिखें कि नेताओं को अनुवादकों की जरुरत पड़ने लगे।”

दूसरी बात- जब राजस्थानी को संविधान की 8वीं सूची में शामिल करने के लिए कमेटी बनाई गई तो उसमें मेरा भी नाम था। हमने ख़ूब चाहा कि हमारी राजस्थानी भाषा को मान्यता मिले लेकिन हमें आख़िर तक कोई जवाब नहीं मिला। इसके बाद जब हमने उनसे पूछा तो हमें जवाब मिला कि “देखिये, कमेटियां इसलिये बनाई जाती हैं ताकि मामले को टाला जा सके। इसलिये नहीं कि मसला हल कर दिया जाए।”

तीसरी बात- “बीकानेरवालों ! मुझे लगता है कि जिस दिन आप नेताओं को ‘बीकानेरी रसगुल्ले’ खिलाना छोड़ देंगे, उस दिन आपकी राजस्थानी को मान्यता मिल जाएगी।”

उनका भाषण ख़त्म होते ही पीछे बैठे साहित्यकार बुलाकी शर्मा ने प्रतिक्रिया दी, बोले- “सुमित ! लखावत जी की बात से क्या समझे? एक आर्टिकल उनके भाषण पर भी लिखा जा सकता है।” ऐसा बोलते वक़्त उन्होंने होंठों पर एक मुस्कान भी ओढ़ रखी थी। उनकी इस मुस्कान के पीछे एक राजस्थानी साहित्यकार का दर्द छिपा था। जो इस आर्टिकल पर (यहां Click कर पढ़ें) टिप्पणी के रूप में जगजाहिर हुआ।

बुलाकी शर्मा को लखावत सा’ब की उपरोक्त तीनों बातें ही नहीं जंचीं। उन्होंने पहली बात पर कमेंट करके हुए कहा कि “लखावत जी से ये अपेक्षा थी कि वे राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता और राजस्थानी को राजभाषा घोषित करने के संबंध में अपनी डबल इंजन सरकार द्वारा की जा रही सकारात्मक कार्यवाही से अवगत करवाएंगे। वे आश्वस्त करेंगे कि दोनों मांगें जायज हैं। उनकी डबल इंजन सरकार का मुख्य इंजन दिल्ली संवैधानिक मान्यता और उससे अटैच इंजन राजभाषा शीघ्र ही घोषित करेगा। किंतु अफसोस कि मंच पर राजस्थानी के समर्पित साहित्यकारों द्वारा इसकी मांग किया जाना भी उन्हें अच्छा नहीं लगा। कह दिया कि मान्यता मिल जाने से क्या होगा? उनकी इस बात से वहां उपस्थित साहित्यकारों के मन को गहरी ठेस लगी और हम आपस में अफसोस भी करने लगे। कुछ साहित्यकार साथी इतना नाराज़ हुए कि उनके भाषण के बीच खड़े होकर उनसे सवाल करने का मन बना चुके थे किंतु मैंने उन्हें समझाया कि रोटरी क्लब ने उन्हें राजस्थानी हितैषी के रूप में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है, उनके सम्मान समारोह में विघ्न डालना उचित नहीं लगता । साहित्यिक साथियों को मेरा सुझाव सही लगा और उन्होंने सवाल नहीं किए।”

इसी तरह लखावत के दूसरे बयान पर भी उन्होंने कमेंट किया कि-“लखावत जी ने राजस्थानी मान्यता की बात नहीं करने का कह कर, अपनी डबल इंजन सरकार की अच्छी वकालत की और अपनी केंद्र और राज्य सरकार की मंशा भी सांकेतिक रूप से स्पष्ट कर दी कि वह मान्यता देने वाली नहीं है।”

आख़िर में तीसरी बात पर बुलाकी शर्मा ने कहा कि- “लखावत जी ने बीकानेर की समृद्ध साहित्यिक परम्परा और यहां के राजस्थानी साहित्यकारों की प्रेरक सृजनात्मक क्षमता की सराहना करने की जगह, बीकानेरी भुजिया और रसगुल्ला वाला शहर ही बताया। यह बीकानेर की तारीफ नहीं, वरन यहां की साहित्यिक सामर्थ्य की सायास अनदेखी के साथ मजाक उड़ाना भी है। उन्होंने मशवरा दिया कि आप रसगुल्ला भुजिया देना बंद कर दें, कहें कि पहले मान्यता दिलाएं।”

बुलाकी शर्मा की ये तीनों ही प्रतिक्रियाएं.. राजस्थानी साहित्यकार के सच्चे दर्द को उजागर करती हैं। वो दर्द.. जो दुखता बहुत है, मगर दिखता नहीं। वो दर्द.. जो कभी ख़ामोशी बनकर छिपने की कोशिश करता है, तो कभी मुस्कान बनकर। लेकिन विडंबना देखिये कि इस दर्द को महसूस करने वाला तक कोई नहीं है। इसे वही महसूस कर सकता है, जिसने इसे भोगा हो। पूरे राजस्थान में ऐसे हज़ारों बुलाकी शर्मा होंगे, जो दशकों से मायड़ की मान्यता को लेकर ये दर्द झेल रहे हैं।

मैं तो लखदाद दूंगा लखावत साहब को.. जिनके बहाने हज़ारों राजस्थानी साहित्यकारों का छिपा हुआ दर्द इस कदर बयां तो हुआ। वे क़रीब अढ़ाई सौ लोगों के सामने खड़े होकर राजस्थानी की मान्यता पर बात तो करते हैं। हमारे कुछ मंतरी-संतरी तो राजस्थानी का नाम सुनते ही रास्ता बदल लेते हैं। लखावत जी ‘मान्यता के लिये बनाई कमेटियों’ का सच सामने लाने की हिम्मत तो रखते हैं। लेकिन जिनको पैरवी करनी चाहिये, वे राजस्थानी के मुद्दे से ही बचते-फिरते हैं। लखावत मान्यता न मिलने पर नेताओं को लानत देते हैं। वहीं दूसरे नेताओं को राजस्थानी पर सवालों से डर लगता है। कोई पत्रकार सवाल पूछ भी ले, तो नथूने फुलाने लगते हैं। लेकिन हां.. राजस्थानी भाषा से अपना मुनाफा बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ते। क्या तो गीत.. ओहोहो, क्या ही अखाणे.. वाह जी वाह, अ’र क्या ही चुटकुले.. जीयो राजा। सुनकर कोई ताली न भी बजाये तो ये कहकर बजवा लेते हैं।

..लेकिन ऐसा कतई नहीं है कि राजस्थानी जाजम पर राजस्थानी साहित्यकार मन मसोस कर ख़ामोश बैठे रहेंगे और कोई पूछेगा तक नहीं।
पूछेंगे.. ज़रूर पूछेंगे। आपकी ख़ामोशियों की गूंज पूरे देश तक पहुंचाएंगे। आपकी चुप्पियों से जिम्मेदारों की बोलती बंद करेंगे।

बहरहाल.. मोदी जी ! एक बात तो है। जो बात आपके ‘मंतरी’ आपसे कभी न कह सके, वो बात हमारे राजस्थानी लेखक की ‘ख़ामोशी’ ने खुलेआम कह दी। जाते-जाते ‘राज़िक़ अंसारी’ के ये भाव पढ़ते जाइयेगा। इस उर्दू शब्दों से सजी ग़ज़ल में हम 10 करोड़ राजस्थानियों का दर्द छिपा है। भाषा की यही तो ख़ूबसूरती होती है। आप एक राजस्थानी के नज़रिये से इसके माने समझियेगा, आपको हज़ारों बुलाकी शर्मा की ख़ामोशियां समझ आ जाएंगी। पेश-ए-खिदमत है-

ख़मोशियों में सवाल क्या है कोई न समझा
हमें है क्या ग़म मलाल क्या है कोई न समझा

सभी ने इक एक रंग अपना बना लिया है
मगर ये रंगों का जाल क्या है कोई न समझा

जवाब देने की इतनी जल्दी पड़ी थी सब को
सवाल ये है सवाल क्या है कोई न समझा

पता था सब को सियासी मोहरे बिछे हुए हैं
मगर सियासत की चाल क्या है कोई न समझा

किया था चेहरा शनास होने का सब ने दा’वा
मगर मिरे दिल का हाल क्या है कोई न समझा

दीयाळी रा घणा-घणा रामी-राम सा..
चानणौ हुवै।

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2 thoughts on “मेरी बात : मोदी जी ! जो बात आपके ‘मंतरी’ न कह सके, वो राजस्थानी लेखक की ‘ख़ामोशी’ कह गई

  1. करोड़ों कंठों की भाषा, हमारी मायड़ भाषा की पीड़ा को आपने महसूस किया, धन्यवाद आपका।

    पुरानी पीढ़ी के साहित्यकार इसकी संवैधानिक मान्यता का सपना मन में लिए ही इस दुनिया से चले गए और सरकारों की उदासीनता से लग रहा है कि मेरी पीढ़ी भी अपने जीवन काल में यह सपना पूरा होते नहीं देख पाएगी लेकिन राजस्थानी की सभी पीढ़ियों की कलम कभी रुकने वाली नहीं है। सरकारें चाहे मायड़ भाषा को उसका वाजिब हक ना दे लेकिन उसके सच्चे सपूत हक दिलाने के लिए अहिंसात्मक आंदोलन करते रहेंगे, साथ ही अपनी कलम की ताकत का लोहा मनवाते हुए नित नया और अनूठा सृजन करते रहेंगे।

    राजस्थानी लेखकों की कलम चलती रही है और चलती रहेगी। पूरे देश के साहित्यिक संसार में राजस्थानी भाषा और साहित्य की प्रतिष्ठा है, अनुवाद के जरिए अन्य भारतीय भाषाओं के असंख्य पाठक उससे जुड़े हैं और उसके प्रशंसक हैं। सदियों से राजस्थानी को साहित्यिक मान सम्मान और प्रतिष्ठा मिली हुई है। सरकारी मान्यता भी मिल कर रहेगी।

    जै राजस्थान। जै राजस्थानी।।

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