बात पिछले साल की है। राजस्थान में चुनावी मौसम चल रहा था। इस दौरान पीएम नरेंद्र मोदी का जयपुर दौरा होता है। प्रधानमंत्री की अगुवाई के लिये प्रदेश नेताओं की हौड़ मच जाती है। लेकिन.. प्रदेश नेतृत्व ने कुछ और ही तय कर रखा था, जिसका ख़ुलासा वे पीएम के आने तक नहीं करते हैं। जब मोदी आते हैं और पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्मारक पर पुष्पांजलि के लिये पहुंचते हैं.. तो उनके साथ 2 ऐसे नेता दिखाई देते हैं, जिन्हें देखकर सब दंग रह जाते हैं। बीजेपी द्वारा ख़ास तवज्जो पाने वाले उन 2 नेताओं में एक का नाम था- ओंकार सिंह लखावत। फिलहाल राजस्थान धरोहर प्राधिकरण के मनोनीत अध्यक्ष।
मोदी के साथ उनके इस ‘साथ’ ने ख़ूब सुर्खियां बटोरी लेकिन.. मुझे इन सुर्खियों से जियादा हैरानी इस बात की हुई कि वे राजनीति में आने से पहले लेखक, वकील और पत्रकार रहे हैं। ज़रा सोचिये कि कोई साहित्यकार जब सियासतदां बन जाए तो कैसा सियासतदां होगा? कोई पत्रकार जब राजनेता हो जाए तो कैसा राजनेता होगा? कोई वकील जब जनप्रतिनिधि बन जाए तो कैसा जनप्रतिनिधि होगा? इसी रेयर कॉम्बीनेशन ने मेरी… उनसे चर्चा की तलब जगा दी। हमने लखावत जी को बीकानेर में ‘ख़बर अपडेट’ के दफ्तर में इंटरव्यू के लिये इनवाइट किया, जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया। समय के पक्के पाबंद, अलसुबह मौक़े पर मौजूद।
चर्चा शुरु हुई तो सियासत में एंट्री से लेकर लोक के रास्ते संस्कृति और धरोहर पर जाकर ख़त्म हुई। इस बातचीत में कब एक घंटा.. मिनटों में तब्दील होते हुए सेकंड बनकर जा उड़ा, पता ही नहीं चला। लेकिन यह एक घंटा उनको समझने के लिये कतई पर्याप्त नहीं रहा। उन्हें जो कहना था, एक मंझे हुए वक्ता की तरह कह गये और निकल पड़े- अपने अगले पड़ाव ‘रोटरी क्लब, बीकानेर’ के लिये। लखावत चले गये लेकिन पीछे छोड़ गये कई सवाल, जिनके जवाब मिलने बाक़ी थे।
बहरहाल.. ओंकार सिंह लखावत की कार रोटरी क्लब तक पहुंचे, तब तक बता दूं कि इस इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बार-बार कहा कि “मैं एक साधारण कार्यकर्ता हूं। राजनीति नहीं जानता।” लेकिन मुझे उनका ख़ुद को लेकर यह आंकलन सही नहीं लगा। मेरे विश्लेषण के मुताबिक “वे न सिर्फ राजनेता हैं, बल्कि एक मंझे हुए राजनेता है।” वे 1980 में बीजेपी के गठन के दौरान महामंत्री बने, फिर जिलामंत्री, प्रदेश मंत्री, 7 बार प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष, यूआईटी के चेयरमैन, राज्यसभा सांसद और बाद में राजस्थान धरोहर प्राधिकरण के अध्यक्ष जैसे ओहदों पर रहे। मेरे उपरोक्त विश्लेषण पर आपको भी यक़ीन हो जाएगा। ज़रा आगे-आगे देखिये, होता है क्या।
अब तलक लखावत साहब की कार रोटरी क्लब से दरवाजे तक पहुंच गई थी। वे 27 अक्टूबर के दिन ‘राज्य स्तरीय राजस्थानी भाषा समारोह’ में शरीक होने यहां पहुंचे हैं। जब मैं वहां पहुंचा, तब वे मुख्य अतिथि की कुर्सी पर बैठे दिखाई दिये। कार्यक्रम संजीदा था, देर तक चला। सम्मान समारोह के बाद.. हर कोई लखावत को सुनना चाह रहा था। मैं भी उनके भाषण में मेरे उपरोक्त सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश कर रहा था। ‘राजस्थानी भाषा समारोह’ में वे घंटाभर बोले। ..और ऐसा बोले कि सब सवाल ख़ुद-ब-ख़ुद अपने जवाब पा गये।
मैं जानना चाह रहा था कि “कोई वकील जब जनप्रतिनिधि बन जाए तो कैसा जनप्रतिनिधि होगा?”
उनके भाषण में एक वकील सरीखी तार्किकता नज़र आई। वे बोले कि “मैं चुनावी राजनीति से दूर रहा। चुनाव लड़ता तो भी क्या होता? मेरी जाति के गिनती के वोट हैं, ऐसे में जीत पाना आसान नहीं होता। वैसे भी किसने कहा है कि काम करने के लिये चुनाव लड़ना ज़रुरी होता है। छोटे-छोटे कामों से भी तो बड़े काम किये जा सकते हैं। हमने राजस्थान में इतने पैनोरमा बना दिये कि हमारे महापुरुष मरकर भी जिंदा हो गये, इतिहास जीवंत हो गया। कुछ लोग अपनी मूर्तियां लगवाते हैं, हमने उनकी मूर्तियां लगवाई, जिनकी वजह से हम हैं। तेजाजी, जांभोजी, करणी माता का पैनोरमा बनवाया और अब कोलायत में कपिल मुनि का पैनोरमा बनवाने जा रहे हैं।“
वकील लखावत ने ऐसा कहा तो पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा।
अब बारी लेखक लखावत की थी। वैसे मेरी यह बात जानने में दिलचस्पी भी थी कि “कोई साहित्यकार जब सियासतदां बन जाए तो कैसा सियासतदां होता है?”
इसके जवाब के लिये भी जियादा इंतज़ार न करना पड़ा। उनकी अगली कुछ पंक्तियों में ही इसका जवाब मिल गया। राजस्थानी भाषा की मान्यता के मसले पर बोले कि- “इस कार्यक्रम के दौरान मैं 6 बार राजस्थानी भाषा की मान्यता का जिक्र सुन चुका हूं। मैं राजनेता नहीं हूं, मैं एक सेंटीमेंटल इंसान हूं। मैं पूछता हूं क्या फर्क पड़ जाएगा, जो मान्यता मिल जाएगी। आप-हम तब भी वैसे ही कपड़े पहनेंगे, जैसे अभी पहन रहे हैं। होना तो यह चाहिये कि हम राजस्थानी में इतना लिखे कि नेताओं को अनुवादकों की जरुरत पड़ने लगे। फिर वे अनुवादक लाएंगे कहां से?“
यहां लेखक लखावत बोल रहे थे। एक लेखक और कर ही क्या सकता है? लेखक सेंटीमेंट्स की बात करता है, वो बात करता है, जो उसे वश में होती है। जी भरकर और भर-भरकर लिखने की बात करता है। उसे क्या ही मालूम कि उसके भर-भरकर लिखे को कौन पढ़ेगा? वो भी राजस्थानी में लिखे को? फकत लिखने भर से सबकुछ हो जाता तो अब तक मान्यता क्यों न मिली? आप अनुवादक की बात करते हैं, लेकिन सवाल तो यह उपजता है कि राजस्थानी के पाठक भी कहां से लाएंगे? फकत जमा करने का क्या ही लाभ?
मगर शब्दों पर पकड़ रखने वाले लखावत ने इसी बात को भी इतनी सियासी अदा से परोसी कि वही सभागार फिर से तालियों से गूंज उठा।
अब एक और जिज्ञासा सता रही थी कि “कोई पत्रकार जब राजनेता हो जाए तो कैसा राजनेता होगा?”
पत्रकार लखावत ने बातों ही बातों में इसका भी जवाब दे दिया। बोले कि-राजस्थानी भाषा को संविधान की 8वीं सूची में सम्मिलित करने के लिए एक कमेटी बनी तो उसमें मेरा भी नाम था। हमने ख़ूब चाहा कि हमारी मायड़ भाषा को मान्यता मिले लेकिन कमेटी बनने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं मिला तो हमने पूछा कि “भई ! कमेटी ने प्रस्ताव भेज दिया है, आप कुछ जवाब तो दो।”
तिस पर जवाब मिला- आपको पता है कि ये कमेटियां क्यों बनाई जाती हैं?
मैंने कहा- आप ही बताइये।
सामने से जवाब मिला कि- “इसलिये ताकि मामले को टाला जा सके। इसलिये नहीं कि मसला हल कर दिया जाए।”
मैं जी-भर कर चाहता हूं कि राजस्थानी को मान्यता मिले, इस बात का समर्थन करता हूं लेकिन…कैसे? इसका जवाब मेरे पास है।
बीकानेरवालों ! मुझे लगता है कि जिस दिन आप नेताओं को ‘बीकानेरी रसगुल्ले’ खिलाना छोड़ देंगे, उस दिन आपकी राजस्थानी को मान्यता मिल जाएगी।”
लखावत साहब ने ‘रसगुल्ले’ खिलाने छोड़ने की बात तो कह दी। कितना अच्छा होता गर वे राजस्थानी की मान्यता में अड़ंगा लगाने वालों के नाम भी बताते जाते। वैसे, उनकी इस बात “नेताओं को ‘रसगुल्ले’ खिलाना छोड़ दो” में भी कई मायने छिपे हैं। ये बात पत्रकार लखावत ने कही थी और इसे समझने के लिये एक पत्रकार सरीखा ही सेंस ऑफ ह्यूमर चाहिये। नामालूम कि वहां मौजूद कितने लोग समझ पाये, लेकिन ‘कमेटियां क्यों बनाई जाती है?’ की साफगोई वाली बात पर वही सभागार एक बार और तालियों से गूंज उठा।उनकी बात सुनकर मेरे पीछे की कुर्सी पर बैठे बीकानेर के साहित्यकार-व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा मुस्कुराने लगे।
भाषण ख़त्म हुआ तो बुलाकी शर्मा ने व्यंग्य में पूछा- “सुमित ! लखावत जी की बात से क्या समझे? एक आर्टिकल उनके भाषण पर भी लिखा जा सकता है।”
यह आर्टिकल सुझाने के लिये आप बुलाकी जी को धन्यवाद दे सकते हैं।
बहरहाल, लेखक, वकील, पत्रकार और सियासी के गुणों से लबालब लखावत की ये बात मानने में नहीं आती कि “मैं राजनीति नहीं जानता”। उनका यह कहना भी एक तरह की राजनीति है। और लखावत सा’ब का भाषण सुनने के बाद तो कोई भी कह देगा कि “वे न सिर्फ राजनेता हैं, बल्कि एक कुशल राजनेता हैं।”
वैसे, आपका क्या कहना है? नीचे दिये कमेंट बॉक्स में कमेंट करके हमें बता सकते हैं। जल्द ही उनका इंटरव्यू भी आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा।
प्रिय सुमित,
आपने सटीक विश्लेषण किया है कि लखावत जी कुशल राजनेता हैं। रोटरी क्लब के राजस्थानी सम्मान समारोह में राजस्थानी लेखक उनसे ये अपेक्षा किए थे कि वे भाजपा के कद्दावर नेता हैं, उन्हें मंत्री का दर्जा मिला हुआ है, तब निश्चित ही वे राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता और राजस्थान राज्य में राजस्थानी को राजभाषा घोषित करने के संबंध में अपनी डबल इंजन सरकार द्वारा की जा रही सकारात्मक कार्यवाही से अवगत करवाते हुए आश्वस्त करेंगे कि दोनों मांगे जायज हैं और उनकी डबल इंजन सरकार का मुख्य इंजन दिल्ली संवैधानिक मान्यता और उससे अटैच इंजन राजभाषा शीघ्र ही घोषित करेगा।
किंतु अफसोस कि मंच पर राजस्थानी के समर्पित साहित्यकारों द्वारा इसकी मांग किया जाना भी उन्हें अच्छा नहीं लगा। कह दिया कि मान्यता मिल जाने से क्या होगा? उनकी इस बात से वहां उपस्थित साहित्यकारों के मन को गहरी ठेस लगी और हम आपस में अफसोस भी करने लगे। कुछ साहित्यकार साथी इतना नाराज हुए कि उनके भाषण के बीच खड़े होकर उनसे सवाल करने का मन बना चुके थे किंतु मैंने उन्हें समझाया कि रोटरी क्लब ने उन्हें राजस्थानी हितैषी के रूप में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है, उनके सम्मान समारोह में विघ्न डालना उचित नहीं लगता । साहित्यिक साथियों को मेरा सुझाव सही लगा और उन्होंने सवाल नहीं किए। उन साथियों का नामोल्लेख शिष्टाचार के विरुद्ध होने से नहीं कर रहा। निजी बात को, बिना उनकी अनुमति के सार्वजनिक करना अनुचित है।
आपने उन्हें कुशल वकील बताया, उससे भी उनका भाषण सुनकर सहमत हूं। उन्होंने राजस्थानी मान्यता की बात नहीं करने का कह कर, अपनी डबल इंजन सरकार की अच्छी वकालत की और अपनी केंद्र और राज्य सरकार की मंशा भी सांकेतिक रूप से स्पष्ट कर दी कि वह मान्यता देने वाली नहीं है।
बीकानेर की समृद्ध साहित्यिक परम्परा और यहां के राजस्थानी साहित्यकारों की प्रेरक सृजनात्मक क्षमता की सराहना करने की जगह उन्होंने बीकानेर को भुजिया और रसगुल्ला वाला शहर ही बताया। यह बीकानेर की तारीफ नहीं, वरन यहां की साहित्यिक सामर्थ्य की सायास अनदेखी के साथ मजाक उड़ाना भी है। उन्होंने मशवरा दिया कि आप रसगुल्ला भुजिया देना बंद कर दें, कहें कि पहले मान्यता दिलाएं।
मान्यता की मांग केवल बीकानेर की नहीं, पूरे राजस्थान और प्रवासी राजस्थानियों की है, फिर तो वे जहां जाएंगे, वहां के राजस्थानी हितैषियों से यही कहेंगे कि आप अपने क्षेत्र की विशिष्ट पहचान रखने वाली मिठाइयां और नमकीन देना बंद कर दें। यह मशवरा एक वकील अपने मुवक्किल के पक्ष में दे सकता है, राजस्थानी भाषा साहित्यिक का पैरोकार नहीं।
वे प्रबुद्धजन हैं, अच्छे वक्ता हैं, तालिया बटोरने में भी सिद्धहस्त हैं किंतु राजस्थानी समारोह में उद्बोधन राजस्थानी की जगह हिंदी में देना भी चर्चा का मुद्दा बना हुआ है। वे ठेठ राजस्थानी हैं, हम उन्हें राजस्थानी भाषा मान्यता के समर्थक मानते आए हैं, वे राजस्थानी में उद्बोधन देते तो उनके कुछ विचारों से असहमतियों के बावजूद सबको ज्यादा खुशी होती।
मेरे आत्मीय आग्रह पर आपने उनके वक्तव्य का बारीक विश्लेषण करते हुए बेबाकी और निडरता से लिखा, इसके लिए मन से बधाई और स्नेहाशीष।
राजस्थानी साहित्यकारों के मन की पीड़ा को आपने समझा और सभी मुद्दों पर खरा खरा लिख कर पत्रकारिता का मान बढ़ाया है।
आप जैसे युवा पत्रकार सच को साहस के साथ समाज के सामने रखते रहें, निष्पक्षता के साथ, यही मंगलकामना है।
पुनः बहुत बहुत बधाई।
प्रोत्साहन के लिये शुक्रिया।