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विमर्श: सोलर प्लांट लगाने से मरुस्थलीय वनस्पति, जीव-जन्तु संकट में

पश्चिमी राजस्थान और बीकानेर सोलर हब बनता जा रहा है। यहां कई बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने प्रोजेक्ट्स लगा रही हैं। माना कि देश के विकास में सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पादन महत्वपूर्ण सेक्टर है, इससे ऊर्जा के सैक्टर में आत्मनिर्भरता आएगी। लेकिन यहां पारिस्थितिकी तंत्र को कितना नुक़सान होगा, इस पर कोई नहीं सोच रहा है। कम ही लोगों को इल्म होगा कि इससे पश्चिमी राजस्थान और बीकानेर में मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा संकट आने वाला है। आइये, आज के ‘विमर्श’ में उस संकट को अभी से भांपने की कोशिश करते हैं।

पश्चिमी राजस्थान के जिन गांवों के पास सोलर प्रोजेक्ट लगे हैं, वहां गाय, भेड़, बकरी, ऊंट के विचरण की जगह ही नहीं बची है। यहां तक की पक्षियों के झुंड के झुंड ग़ायब हो गए हैं। वजह है- उनको घोंसले बनाने और बैठने की जगह नहीं मिलना। रेगिस्तानी वनस्पति का अपना एक पूरा पारिस्थितिकी चक्र है। जो अध्ययन से ही समझा जा सकता है। लेकिन अध्ययन करे कौन? उनको कोई बताये तो सही कि-

  • सोलर प्लांट्स के विस्तार से मरुस्थलीय वनस्पतियों के बीजों का प्रकीर्णन, प्रस्फुटन आदि का प्रभावित होना 100 फीसद तय है।
  • अनुकूल परिस्थिति के अभाव में खेजड़ी, फोग, खींप, बोरटी, बावलिया, सेवण, भूरट, धामण जैसी रेगिस्तानी वनस्पति कम होती जाएगी।
  • आवास और प्रजनन स्थान नहीं मिलने के चलते रेगिस्तानी जीव-जंतु जैसे- कौवे, चिड़िया, कमेड़ी, कागडोड, चील, हिरण, लोमड़ी, खरगोश भी कम होते जाएंगे। क्योंकि उनका वर्तमान आवास और प्रजनन स्थान भविष्य में उनका नहीं रहेगा।
  • सोलर प्लांट्स से सबसे ज्यादा नुकसान तो हमारे राज्य वृक्ष खेजड़ी को हुआ और हो रहा है। दरअसल, सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट लगाने से पहले भूमि सुधार में वृक्षों का सफाया किया जा रहा है। बाद में भू स्तरीय और मझोली वनस्पति समाप्त होती जा रही है। कायदे से तो प्रोजेक्ट लगाने से पहले कुल प्रोजेक्ट के एरिया के 30 प्रतिशत भाग ग्रीन बैल्ट बनाना होता है। लेकिन इन सब बातों को नज़रअंदाज किया जा रहा है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र के दूरगामी परिणामों को अनदेखा किया जा रहा है। इसकी सार्वाधिक मार मरूस्थलीय वनस्पति और जीव जन्तुओं पर पड़ रही है। इसे आज न तो कोई महसूस कर रहा है और न कोई समझने को तैयार है।

सवाल उठता है कि तो क्या किया जाना चाहिये?

सोलर प्रोजेक्ट समय की मांग और जरुरत है। यह विद्युत उत्पादन कार्बन उत्सर्जन को कम करने वाला और पर्यावरण की दृष्टि से उचित है। ऐस में उष्ण कटिबंध वाले इस मरूस्थलीय में सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पादन को गलत नहीं ठहराया जा सकता। प्रोजेक्ट लगाने से नहीं रोक सकते, बल्कि इनके पारिस्थितिकीय दुष्प्रभावों को कम किया जाना संभव है। इन उपायों को अपनाया जा सकता है-

  • योजनाकारों और सरकारों को सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट क्रियान्वयन में तय मानकों की पालना पर ध्यान देने की ज़रुरत है।
  • सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट में पेड़ों की कटाई को रोकने और पशु-पक्षियों के आवास, प्रजनन, संरक्षण और संवर्धन की पुख्ता व्यवस्था रखी जानी चाहिए।
  • राज्य वृक्ष खेजड़ी और वन्य जीवों की टैगिंग होनी चाहिए। इसके संरक्षण के लिये नुरसर में लगे प्रोजेक्ट के पैटर्न को अपनाया जाना चाहिये, जहां एक भी खेजड़ी नहीं काटी गई है, उनके लिये जगह छोड़ दी गई है। खेजड़ी की छंगाई कर दी गई है। इससे ज्यादा धूप भी नहीं रुकती और हर साल छंगाई से चारा उत्पादन भी होता है। पर्यावरण का भी ज्यादा नुक़सान नहीं होता।
  • सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट एरिया में ग्रीन बेल्ट में स्थानीय प्रजाति की वनस्पति का संरक्षण-संर्वधन को प्राथिमकता देने की जरुरत है। थोड़े से फायदे के लिये इकोलॉजी को इतना भारी नुकसान नहीं हो, इसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट का हिस्सा बनाएं।

कुल मिलाकर, राज्य सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को मरुस्थल के बडे भू-भाग पर सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट लगाने से जीव-जगत, प्रकृति-पर्यावरण और समग्र पारिस्थितिकी पर होने वाले प्रभावों पर सजगता से विचार करना चाहिए। अगर खेजड़ी जैसे पेड़, वन्य जीव जंतु और पक्षियों से रेगिस्तानविहीन हो गया तो परिणाम ख़तरनाक होगा। बादल नहीं आएंगे, बारिश नहीं होगी, पेड़-पौधे नहीं पनपेंगे, जीव-जंतु नहीं होंगे तो इलाका वीरान होता जाएगा। भला, ऐसी जीवनहीन सौर ऊर्जा किस काम की?

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