बीबीसी का कैमरा रोल कर रहा था। बीबीसी संवाददाता- अंशुल सिंह नए-नवेले नेता और मास्टर सा’ब अवध ओझा का इंटरव्यू कर रहे थे। सवाल-जवाब का दौर जारी था। अंशुल सवाल पूछते हैं कि “क्या पहले की तरह अब भी वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी की तारीफ करना जारी रखेंगे?”
इस पर ओझा जवाब देते हैं कि “तारीफ करना एक अच्छे इंसान की निशानी है. पता नहीं क्यों आज के लोग तारीफ को इतना बुरा क्यों मानते हैं. तारीफ करना एक सकारात्मक सोच वाले इंसान की निशानी है. राजनीति में किसी की किसी से दुश्मनी थोड़ी है. वो अपनी बात के पक्ष में तर्क दे रहे होते हैं कि कैसे सचिन तेंदुलकर ने ब्रायन लारा की तारीफ की. जब उन्होंने दोबारा 400 रन बनाए.”
इसी बीच बैकग्राउंड से एक आवाज़ आती है- “रोक दीजिए।”
संवाददाता अंशुल और अवध ओझा आवाज़ की दिशा में देखते हैं। कोई रिपोर्टर अंशुल को टोकते हुए कहता है कि “रोक दीजिए…आपको मैंने बोला था ना मतलब.. उल्टा सीधा सवाल नहीं करने के लिए..”
इसके जवाब में अंशुल कहते हैं कि “नॉर्मल सवाल ही कर रहे हैं।”
अंशुल.. अवध ओझा से भी पूछते हैं कि “सर ! ऐसा कोई आब्जेक्शनल सवाल आपसे क्या किया?”
..लेकिन यूपीएससी के अध्यापक ओझा तो ख़ुद एक स्कूली बच्चे की तरह ठुड्डी पर दोनों हाथों को बांधे चुपचाप सुनते रहे। मानो उनके सामने गणित का कोई अध्यापक खड़ा हो।
रिपोर्टर ने एक और बार अवध ओझा की तरफ बचाव की उम्मीदभरी नज़रों से देखा। लेकिन राजा बनने का ज्ञान देने वाले मास्टर साहब से फकत इतना ही कहते बना कि “ये देखो.. मैं एक बात बताऊं.. पार्टी लाइन डिसाइड करेगी.. ये तो ये लोग डिसाइड करेंगे..”.
ऐसा कहकर ओझा माइक उतार देते हैं। इसके बाद बीबीसी का कैमरा बंद हो जाता है। इसके बाद बीबीसी की एंड प्लेट पर लिखा आता है कि “आम आदमी पार्टी के पदाधिकारियों ने इसके बाद यह इंटरव्यू जारी नहीं रहने दिया और रिकॉर्डिंग रुकवा दी।” (यहां CLICK करके इंटरव्यू देख सकते हैं)
इस इंटरव्यू को 24 घंटे भी नहीं हुए लेकिन यह इंटरव्यू देशभर में चर्चा का विषय बन चुका है। चर्चा इन बातों की कि-
-आज के दौर में पत्रकारिता में कितनी स्वतंत्रता रह गई है?
-आख़िर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्या मायने रह गये हैं?
-राजनीतिक पार्टियां किस तरह मीडिया पर दबाव बनाती हैं?
-किस तरह से पत्रकारों को दबाया, डराया- धमकाया जाता है।
-पत्रकारों को क्यों पाबंद किया जाता है कि वे नेताओं से सुहावने सवाल ही पूछें?
..और चर्चायें इन बातों की भी कि-
-पार्टियां और उनके नेता मीडिया पर दादागिरी क्यों करना चाहती है?
-क्यों राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों को इतना गुस्सा आता है?
-क्यों नेता लोग.. पत्रकारों की बात को व्यक्तिगत लेने लग गये हैं?
-क्यों पार्टियां और नेता खुद को.. लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से बड़ा मानने लगे हैं?
-आख़िर क्यों आजकल नेताओं, पार्टियों में सहनशीलता नहीं रह गई है?
-क्यों नेता बनते ही पढ़े-लिखे लोगों के भी सुर बदलने लगते हैं?
बहरहाल, यह घटना एक प्रतिष्ठित इंटरनेशनल न्यूज़ चैनल के साथ घटी है, इसलिए चर्चा में आ गई। देश में न जाने कितने छोटे-बड़े मीडिया हाउसेज होंगे, जिनके पत्रकारों से ऐसे ही रौब दिखाकर, डराकर, धमकाकर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ छीनी जा रही है। घटियापन की हद देखिये कि सत्ता-सुख भोगने के लिये ये एकदम निम्न स्तर पर आ चुके हैं।
सवाल यह भी कि, कैसे कोई लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को तपाक से बक देता है- “..बोला था न उलटा-सीधा सवाल नहीं करेंगे”
भला ये ‘पार्टी लाइन’ क्या और कौन होती हैं मीडिया के सवालों को डिसाइड करने वाली?
सोचियेगा.
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Perhaps this is what journalism should aim at. You have to bring the truth in the open.
Sumit you r doing good job n moving on the right path.
Politics has reached to the bottom of its ethics. And it is the fourth pillar of democracy that has to bear the stresses arising out of this deterioration.
A good artical.
Congrats
Thank you sir for your comment. Your feedback encourages me.
Ironically, journalism has become a difficult job in today’s times. Politics has also left no stone unturned in ruining the image of the media.
बीबीसी जैसे प्रतिष्ठित न्यूज चैनल के रिपोर्टर को डराया धमकाया जा रहा है फिर अन्य न्यूज चैनलों में खरे रिपोर्टर्स कैसे ईमानदार पत्रकारिता की रक्षा कर सकते हैं।
आपने जो सवाल उठाए हैं, वे एक सच्चे पत्रकार होने का पुख्ता प्रमाण है।
पत्रकारिता ने विश्वसनीयता लगभग खो दी है किंतु आप जैसे युवा पत्रकार उम्मीद जगाए हैं कि वह अपना वजूद कायम रखेगी।
अशेष शुभकामनाएं प्रिय सुमित।