विमर्श : हिंदी पत्रकारिता दिवस पर पत्रकारों से क्या उम्मीदे हैं ?

30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इसी बहाने ही सही, पत्रकारों को पत्रकारिता की खो रही प्रतिष्ठा और मूल्यों की पुर्नस्थापना के लिये चिन्तन करना ही चाहिए। हिन्दी पत्रकारिता के उद्गम उदंत मार्तण्ड (1826) पंडित जुगल किशोर शुक्ल या इससे पहले भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र बंगाल गजट (1816) के काल की बात छोड़ भी दें तो आजादी के आन्दोलन की पत्रकारिता आज भी पत्रकारिता जगत के लिए गर्व की बात है। आज़ादी की लड़ाई में पत्रकारों के संघर्षों की कहानियों को भला कौन नकार सकता है? इस स्वर्णिम इतिहास के बाद की बात भी करें तो भी हिन्दी पत्रकारिता ने भारतीय लोकतंत्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
आज़ादी के बाद पत्रकारिता सिर्फ पेशा नहीं, बल्कि मिशन रही है। इसी दौर में हिन्दी पत्रकारिता ने साबित किया कि वो वाकई लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। लोकतंत्र को मजबूत करने में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका आज भी इतिहास के पन्नों में अंकित है। न सिर्फ लोकतंत्र की मजबूती.. बल्कि राजनीतिक दिशा बोध भी तो पत्रकारिता के बौध्दिक चिन्तन से ही आया है। इतना ही नहीं.. हिंदी पत्रकारिता शिक्षा के प्रसार, कृषि क्रांति, औद्योगिक विकास, सामाजिक जागृति, सामाजिक विसंगतियों के बारे में जनता को जागृत करने में भागीदार रही है। इस तरह आज के राष्ट्रीय विकास की चमकती तस्वीर में भी हिंदी पत्रकारिता का दशकों पुराना योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
बहरहाल, परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इससे पत्रकारिता भी अछूती नहीं रही है। एक समय था, जब प्रिंट मीडिया का दौर था, फिर इलेक्ट्रोनिक मीडिया आया और आज डिजिटल मीडिया का जमाना है। इन तीनों ही दौर में पत्रकारिता के मूल्यों पर चोट हुई है। प्रिंट मीडिया में प्रसार संख्या, इलेक्ट्रोनिक मीडिया में टीआरपी और डिजिटल मीडिया में विवरशिप की होड़ ने कई मायनों में पत्रकारिता का स्तर गिराने का काम किया है। इसमें सबसे ज्यादा चोट तो बाज़ारवाद ने की है। नतीजतन, आज की पत्रकारिता में सत्यता, निष्पक्षता, विश्वनीयता और नैतिकता का पतन होता जा रहा है। आज पत्रकारिता.. विकृतियों से घिर चुकी है। ये स्वार्थसिध्दी और प्रचार का माध्यम मात्र बन चुकी है। ये कहने में गुरेज नहीं कि पत्रकारिता सत्ता की पिछलग्गू, ब्यूरोक्रेसी, व्हाइट कोलर क्रीमिनल का टूल बनकर काम करने में भी परहेज नहीं करती। (हालांकि यह बात सब पर लागू नहीं होती।) अब तो पत्रकारिता की आड़ में वे काम भी होने लगे हैं, जो इसके मूल्यों के ख़िलाफ़ माने जाते रहे हैं। आज इस पेशे में गैर पत्रकार इतने हावी हो चुके हैं कि मीडिया के लिये- गोदी मीडिया, सत्ता के दलाल, भांड मीडिया जैसे शब्द इस्तेमाल होने लगा है। सिर्फ मीडिया हाउसेज ही नहीं, बल्कि पत्रकार संगठनों की भी इसी तरह की साख बनती जा रही है।
90 के दशक में विज्ञापन पैकेज का प्रचलन शुरु हुआ। तब विज्ञापन का पैकेज देने पर ही चुनाव की खबरें छापी जाती रही है। बताया तो यह भी जा रहा है कि इस लोकसभा चुनाव में भी प्रत्याशियों ने मीडिया को प्रचार के मद में करोड़ों रुपये दिये हैं। विडम्बना तो तब होती है कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान एक व्यापारी संगठन का अध्यक्ष.. जिला कलेक्टर और पुलिस अधिकारी का सम्मान करते हैं। डिजीटल मीडिया में इसकी ख़बर भी वायरल होती है। वास्तविक स्थिति क्या थी, इसकी कोई ख़बर नहीं है। खैर, पत्रकारों के अपने-अपने खेमे बंटे हुए हैं। सबकी अपनी प्राथमिकताएं हैं। गैर-पत्रकारों को भी पत्रकार बनाकर गुटों को संबल बनाया जा रहा है। अधिकांश तथाकथित पत्रकारों को न तो विकास और जनहित के मुद्दे जानने की फुर्सत है और न ही भाषा और व्याकरण का समझ। कहीं किसी दफ्तर में बैठा कोई व्यक्ति जैसे-तैसे ‘प्रेस नोट’ बनाकर भेज देता है, वही प्रेस नोट कॉपी-पेस्ट होकर छपता जाता है।
कुल मिलाकर आज के बदलते दौर में पत्रकारिता के मूल्यों का तेजी से नुक़सान होता जा रहा है। विकसित भारत, आधुनिक भारत, विश्व शक्ति भारत के नारे के बीच आज.. पत्रकारिता का अवमूल्यन एक गंभीर चिन्ता की बात है। क्या हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर सभी पत्रकारों को अपनी साख बचाने के लिए आत्म चिंतन करने की जरुरत नहीं है? पत्रकारों से ऐसी उम्मीदें हैं।