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मेरी बात : सच्चे पत्रकारों का साथ दीजिये, ये ही आपकी आवाज़ बनेंगे

छत्तीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई। आरोप है कि सुरेश चंद्राकार नाम के एक ठेकेदार ने उनकी हत्या करवा कर शव अपने यहां सेप्टिक टैंक में चुनवा दिया. इस ठेकेदार का कांग्रेस पार्टी से जुड़ाव भी बताया जा रहा है। ग़रीब परिवार में जन्मा सुरेश बीते बरसों में सरकारी ठेके ले-ले कर बड़ा ठेकेदार बन गया था। अपनी अमीरी के जलवे बिखेरने के लिए उसने 2023 में शाही अंदाज में शादी की थी। पत्नी के स्वागत के लिए प्राइवेट हेलीकॉप्टर मंगवाया था।

वहीं, 33 साल के मुकेश चंद्राकर NDTV में एक स्थानीय पत्रकार थे। वे ‘बस्तर जंक्शन’ के नाम से अपना डिजिटल न्यूज़ चैनल भी चलाते थे। अपने क्षेत्र के संघर्ष, आदिवासी समुदाय के मुद्दे और अन्य स्थानीय समस्याओं पर रिपोर्टिंग करते थे। 24 दिसंबर को मुकेश ने ठेकेदार सुरेश के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की रिपोर्ट की थी। जिसमें उन्होंने बीजापुर के गंगालूर से नेलशनार तक बन रही सड़क के निर्माण कार्य में ख़राब क्वालिटी के मेटेरियल का मुद्दा उठाया था। ये प्रोजेक्ट 120 करोड़ रुपये का बताया जा रहा है। इस रिपोर्ट के बाद बीजापुर कलेक्टर संबित मिश्रा ने PWD को क्वालिटी वर्क करने का आदेश दिया था. तबसे पत्रकार मुकेश की.. ठेकेदार सुरेश चंद्राकर से अनबन चल रही थी। आरोप है कि मुकेश को लगातार धमकियां दी जा रही थीं। इसके बाद 3 जनवरी 2025 को उनका शव ठेकेदार के घर में बने सेप्टिक टैंक में पाया गया।

अफसोस ! पत्रकार मुकेश अब इस दुनिया में नहीं है। आरोप है कि एक ‘ठेकेदार’ की रुपयों की भूख, प्रतिशोध की आग ने एक युवा पत्रकार की जिंदगी लील दी। पत्रकारिता स्वाहा कर दी। मुकेश ने वही किया, जो एक सच्चे पत्रकार को करना चाहिये था। ग्राउंड ज़ीरो की ऐसी निडर पत्रकारिता.. पैनलिस्ट को लड़ाते-भिड़ाते स्टूडियोजीवी कतई नहीं कर सकते। ये जोखिम वही उठा सकता है, जिसे अपने क्षेत्र की जनता की समस्याओं से तकलीफ होती हो। जिसे ऐसे तरह-तरह के ‘ठेकादारों’ से कोई फायदा नहीं लेना हो। ..लेकिन कवि प्रदीप सैनी के शब्दों में इस स्थानीयता के अपने ख़तरे होते हैं। वे कहते हैं कि-

आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना
मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल
विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है
लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।
अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है
हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना
थोड़ा मेहनत का काम
बड़े पावर प्लांट का विरोध करना
एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं
लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए ट्रेक्टर की शिकायत जानलेवा है।
स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैंं
भले ही वे कविता में हों या जीवन में।

मुकेश की परीणीति भी ऐसे ही संघर्ष का नतीजा है। उनके साहस-संघर्ष को सलाम। वैसे, ये पहला मौक़ा नहीं है, जब किसी पत्रकार के साथ ऐसा सुलूक हुआ हो। ऐसे ‘ठेकेदार’ पहले भी अपनी काली करतूतों को अंजाम देते रहते हैं। मसलन-

-मध्य प्रदेश में 35 साल के पत्रकार संदीप शर्मा की हत्या रेत माफ़िया के लोगों ने की थी. उन पर डंपर ट्रक चढ़ा दिया गया.
-उत्तर प्रदेश में शुभम मणि त्रिपाठी की हत्या भी रेत माफ़िया ने की. उन्होंने तो पहले ही फ़ेसबुक पोस्ट लिख कर अपनी जान को ख़तरा बताया था.
-राम चंद्र छत्रपति की हत्या कर दी गई और उनकी हत्या के 17 साल बाद उन्हें इंसाफ़ मिल पाया था. दोषी राम रहीम अब जेल में सज़ायाफ़्ता है.
-बिहार के सुभाष कुमार महतो, महाराष्ट्र के शशिकांत वारिशे.. कितने स्थानीय पत्रकारों की हत्या उनके ड्यूटी निभाते हुए की गई.
-इसके अलावा भी ऐसे कई मौक़े आए, जब तरह-तरह के ‘ठेकेदार’ अपनी शक्ति के मद में चूर होकर लोकतंत्र के चौथे पाये को हिलाने की करतूत करते देखे गये।

यक्ष प्रश्न है कि जब पत्रकारिता में इतना जोखिम हो गया है तो पत्रकारों की सुरक्षा क्यों नहीं दी जाती? सरकार क्यों नहीं कोई कानून बनाती? उपरोक्त सभी लोग किसी बड़े चैनल्स में काम नहीं करते थे, लेकिन इन्होंने काम ज़रूर बड़े किये थे। गोदी मीडिया, बिकाऊ मीडिया जैसे उपमाओं-अलंकारों के आज के दौर में सबको ऐसे पत्रकार चाहिये जो हां में हां मिलाए। ठकुरसुहाती बातें लिखें, मीठी-फुटरी बातें लिखें, तारीफ में कसीदे पढ़ें। क्या मजाल जो धारा के विपरीत जाकर उनकी कारस्तानियों पर सवाल पूछ ले। तब शक्ति के मद में चूर ऐसे ‘ठेकेदारों’ का आपा जाता रहता है। यहां मुकेश जैसे पत्रकारों को सुरक्षा की जरुरत होती है।… लेकिन सरकार द्वारा उन्हें कोई सुरक्षा नहीं मिलती। काहेे? क्या सरकारों को पत्रकार नहीं चाहिए? क्या संविधान की धाराओं (अनुच्छेद 19(1)(ए)) पर पत्रकारों का कोई हक़ नहीं है? क्या पत्रकार देश-माटी के लिये काम नहीं करते? या फकत ‘राज’नेता ही भारत को चलाते हैं? अगर पत्रकारों को सरकार का साथ मिल जाए तो क्या मजाल किसी ‘ठेकेदार’ के धमकाने/डराने की? ..जबकि हो उल्टा रहा है। सरकारों को पत्रकारों का साथ मिल रहा है। खैर..

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर की रैंकिंग (साल 2024) के मुताबिक, प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में 180 देशों की सूची में भारत 159वें पायदान पर है। भारत की स्थिति पाकिस्तान और सूडान से भी ख़राब है। ऐसे हालात को देखते हुए भारत में पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा एक ज़रुरी बात हो गई है। जिसे ध्यान में रखते हुए 18 दिसंबर 2024 को राजस्थान के जयपुर में एक ऑर्गेनाइजेशन ‘जर्नलिस्ट फॉर जर्नलिज्म’ की नींव रखी गई थी। इसमें प्रदेश के संजीदा पत्रकारों ने हिस्सा लिया था (यहां क्लिक कर पढ़ें)। फिलहाल, इस संगठन के विस्तार की प्रक्रिया चल रही है। संकट की इस घड़ी में यह संगठन दिवंगत पत्रकार के परिवार के साथ है।

आपसे भी गुजारिश है कि दिवंगत पत्रकार के परिवार को हौसला दीजिये। उन्हें सांत्वना दीजिए। उनके दुख के साझेदार बनिये। क्योंकि सच्चे पत्रकारों की ज़रुरत न तो सरकारों को है और न ही ऐसे ‘ठेकेदारों’ को। उनकी ज़रुरत सिर्फ लोकतंत्र और आप जनता को है। सच्चे पत्रकारों का साथ दीजिए। ये पत्रकार ही तो आपकी आवाज़ बनेंगे।

इस लेख पर अपनी राय हमें नीचे कमेंट करके दे सकते हैं।

4 COMMENTS

  1. देश में इस प्रकार की घटनाएं अब समान्य हो गईं है क्योंकि संवेदनाएं मर चुकी हैं। अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। सिस्टम और पुलिस तंत्र इतना खोखला हो चुका हैं की परिवादी को पुलिस स्टेशन जाने में डर लगता हैं वहीं अपराधियों का आतिथ्य करने में पुलिसकर्मी अग्रिम पायदान पर खड़े नजर आते हैं।

    कुछ दिन पहले एक मित्र दुबई की चर्चा कर रहे थे क्योंकि मित्र महोदय हाल ही में दुबई से लौटे थे। वे अपनी यात्रा
    के दौरान वहां की कानून व्यवस्था से बड़े प्रभावित थे । बोले वहां के स्थानीय दुकानदार किसी भी प्रकार के ताले का उपयोग नहीं करते क्योंकि दुबई में चोरी नहीं होती फिर हस के बोले हमारे देश में तो ट्रेन के शौचालय में लगा डब्बा भी सुरक्षित नहीं हैं।

    देश में नियम बनाने का काम और उन्हें तोड़ने का काम पुरी ईमानदारी से किया जा रहा हैं नियमों की पालना की मोनिटरिंग में सरकार और सिस्टम सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हे चाहे वो रात को 8 बजे के बाद शराब की बिक्री हो या खुलेआम नशे का कारोबार या भ्रष्टाचार और इन जैसे अनेकों विषय पर सरकार मौन व्रत धारण कर लेती है। क्यों शहर के मुख्य स्थानों पर पूरी रात शराब की बिक्री जारी रहती हैं क्या पुलिस इतनी नकारा हो चुकी हैं की रात 8 बजे के बाद शराब की दुकानों को बंद करने में पूरी तरह से असफल है।
    आम आदमी अपनी रोजमर्रा की परेशानीयो और जीवन की जद्दोजहद में इतना उलझा है की उसे ये सब चीजें दिखती ही नहीं या शायद वो देखना ही नहीं चाहता।
    इन सबके बीच अनंत संभावनाओं से भरे कुछ अतिउत्साही युवा पत्रकार जब अपनी सीमाओं से परे अपने कर्तव्य निर्वहन की चेष्टा करते हैं तो सिस्टम के ठेकेदार उन्हें ठिकाने लगा देते हैं।
    कुछ दिन निंदा चर्चा अपराधियों को पकड़ने के खोखले दावे करने के बाद सिस्टम पुनः अपने मूल स्वरूप में कार्यान्वित होने लगता हैं।
    एक ट्रक पे लिखी पंक्तियां इस संदर्भ में बड़ी सार्थक सी लगती है,….
    कृपया हॉर्न ना बजाए देश सो रहा है …….

    सुमित जी आप की लेखनी में एक भिन्न प्रकार का साहस नजर आता है। ईश्वर आपको और साहस प्रदान करें ताकि आप और साहस के साथ अपनी बात कहते रहें।

    • Kunik Ji,
      सही कहा आपने। मगर आप जनता को ही सम्बल देना होगा। सही और ग़लत का फर्क करना होगा।

  2. बिल्कुल सच कह रहे हैं। आज निष्पक्ष पत्रकारिता अत्यन्त कठिन कार्य हो गया है क्योंकि चाहे राजनीति से जुड़े लोग हों चाहे किसी भी प्रकार के माफिया, निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकार उनकी आंखों की किरकिरी बने रहते हैं और जैसा कि आप द्वारा उद्धृत सैनी जी की कविता में कहा गया है कि अगर वो व्यक्ति स्थानीय स्तर का है जिसकी पोल आपने खोली है तो निश्चित रूप से आपकी जान को गंभीर खतरा है। सरकार की तरफ से पत्रकारों को कोई सुरक्षा नहीं दी जाती जबकि पत्रकारिता को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है।
    एक मुहावरा है कुएं में भांग पड़ी होना। शायद हमारे देश पर ये बिल्कुल सही फिट बैठता है। किसी भी तरफ नजर दौड़ा लीजिए , सरकार चाहे किसी भी दल की हो भ्रष्टाचार इस कदर हमारी जड़ों में बैठा हुआ है कि उसे कोई नहीं हटा सकता। कुर्सी के दुरुपयोग को हर इन्सान अपना अधिकार समझता है चाहे वो कुर्सी कितनी भी बड़ी या कितनी भी छोटी हो। मैं ये नहीं कहता कि पत्रकारों को इन भ्रष्ट अधिकारियों और राजनीतिज्ञों के आचरण को जनता के सामने नहीं लाना चाहिए मगर मैं ऐसे कई पत्रकारों को जानता हूं जो नाम के पत्रकार हैं। अख़बार निकालते हैं मगर या तो वो सरकारी विज्ञापन लेकर अख़बार की दस बीस प्रतियां छापते हैं या फिर अधिकारियों को ब्लैकमेल करने के लिए पत्रकार का चौगा पहने हुए हैं। ऐसे पत्रकारों को क्या कहेंगे आप? ये सिर्फ आज ही नहीं हो रहा है। हमारे समाज की जड़ों में बैठी हुई है ये प्रवृत्ति। मुझे याद है, आज से 60/65 बरस पहले भी बीकानेर में एक तथाकथित पत्रकार कुछ लोगों के भ्रष्ट आचरणों को उजागर करने के नाम पर सनसनीखेज़ खबरों वाला एक समाचार पत्र निकालते थे और तांगे पर लाउड स्पीकर लगाकर पूरे शहर में घूमघूमकर वो अखबार बेचा करते थे। न उनके पास कोई डिग्री थी, न कोई योग्यता। बस उन्हें सुराग़ लग जाता तो वो उस भ्रष्ट अधिकारी से पैसा मांगते थे। अगर उसने पैसा दे दिया तो पत्रकार साहब खामोश और नहीं दिया तो पत्रकार महोदय का अखबार छप जाया करता था और वो निकल पड़ते तांगे पर लाउड स्पीकर लगाकर। हां, अखबार बेचने के लिए निकलने से पहले एक प्रति उन भ्रष्ट अधिकारी के हाथों तक पहुंचाई जाती थी। अगर वो डरकर उन पत्रकार जी द्वारा मांगी गई रक़म देने को तैयार हो जाते तो फिर अखबार बेचने के लिए निकलना निरस्त और पत्रकार महोदय जेब में आई रक़म से घर का राशन लेने निकल पड़ते और अगर किसी कारण से ऐसा नहीं होता तो उनका शहर भ्रमण आरम्भ हो जाता।
    मेरे विचार में पत्रकारिता हो या कोई अन्य करियर, अगर हम चाहते हैं कि कल का हमारा समाज आने वाली पीढ़ियां मिलकर एक आदर्श समाज का निर्माण करे जिसमें न तो भ्रष्ट अधिकारियों और माफियाओं का अस्तित्व हो तो हमें बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए और न्याय व्यवस्था को चाक चौबंद बनाना चाहिए। पत्रकारिता एक व्यवसाय नहीं है, एक सेवा कार्य है अतः हर किसी को पत्रकार बनने का अधिकार नहीं होना चाहिए। उसी व्यक्ति को पत्रकार कहलाने का अधिकार होना चाहिए जो इसके मानदंडों पर खरा उतरता हो। जो पीत पत्रकारिता में लिप्त हों, उनके लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए और जो अच्छे और सच्चे पत्रकार हों, उन्हें सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए।

    • सर,
      आपने लिखी सारी बातें हमारे अंतस की बातें हैं। लेकिन किन-किन से लड़ें? सही कहा आपने कि पत्रकार होने या कहलाने के लिए मापदंडों का पालन होना चाहिए। मगर ये मापदंड माने कौन? हर अज्ञानी खुद को तीसमार खाँ समझ रहा है। फिर विज्ञापनों और नेताओं की चमचागिरी से फुर्सत मिले, तब तो।

      बहरहाल, 18 दिसम्बर को प्रदेश के कुछ संजीदा पत्रकारों ने ‘जॉर्नलिस्ट फ़ॉर जर्नलिज़्म’ संगठन बनाया है। कोशिश है कि कुछ बदलाव लाया जाए। देखते हैं, कितनी सफलता मिलती है।

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