विजयादशमी शुभ हो। आज ही तो पुरुषोत्तम श्रीराम ने लंकापति रावण का संहार किया था। आज ही के दिन दंभ हारा था, अन्याय का अंत हुआ था। आज ही तो श्रीराम की जय-जयकार हुई थी। ख़बर अपडेट के सभी पाठकों/दर्शकों को अंतस की गहराई से इस विजय पर्व की शुभकामनाएं। जय-जयकार हो।
वैसे, लंका नगरी के रावण का संहार तो सदियों पहले हो चुका लेकिन बीकानेर नगरी के ‘रावण’ का संहार कब होगा? अब आप पूछेंगे- “बीकानेर का ‘रावण’ ? कौन है? कहां रहता है?”
अरे वही, जो.. रावण सरीखा ‘विशाल’ है, राक्षस सरीखा ‘काला’ है, लोहे सा ‘फौलादी’ है। जिसकी एक हरकत से अफरा-तफरी मच जाती है। लोग भागने लगते हैं। जो एक बार पसरता है, तो कई ज़िंदगियों को थाम लेता है।
“ओहो.. सुमित भाई ! पहेलियां ना बुझाओ। सीधे मुद्दे पर आओ। कौन है वो ‘रावण’? ज़रा खुलकर बताओ।” आप शायद यही कहना चाह रहे होंगे। तो सुनिये..
बीकानेर का वो ‘रावण’ है- रेलवे फाटक। जिसके संहार की कोशिशें बीते साढ़े तीन दशकों से चल रही हैं, लेकिन बीकानेर नगरी में आज तक ऐसा कोई ‘राम’ नहीं आया, जिसके ‘तीर’ में इतनी ताक़त हो कि इस आततायी ‘रावण’ को गिरा सके। अव्वल तो बीकानेर के कई तथाकथित ‘राम’ आपस में ही लड़-भिड़ रहे हैं कि ‘रावण’ को ऐसे मारेंगे.. वैसे मारेंगे। वे न भिड़ते हैं, न ही भिड़ने देते हैं। नतीजा आप सबके सामने है- शहर के सीने पर खड़े दो-दो रावण (कोटगेट और सांखला फाटक) अट्टाहास करते… प्रजा को परेशान करते नज़र आते हैं। जनता जितना रोती है, वे उतने ही ज़ोर से ठहाके लगाते हैं।
जब भी शहर के बीचोंबीच से ट्रेनें गुज़रती हैं तो बीकानेर के 2 फाड़ हो जाते हैं। हज़ारों लोग हर रोज़ बंटवारे के इस दर्द को झेलते हैं। पूरा हिंदुस्तान गतिमान रहता है, मगर बीकानेर ठहरा-सा मालूम होता है। ऐसा दिन में एक बार नहीं.. दो बार नहीं, बल्कि कई बार और यहां तक कि 75 बार तक होता है। लेकिन हम बीकानेरियों की सहनशीलता की पराकाष्ठा तो देखिये, जो बीते 35 बरसों से ये सब हर रोज़ झेल रहे हैं। चाहे सर्दी हो या गर्मी, आंधी हो या तूफान, या हो कोई भी चुनावी मौसम.. हम समभाव से सब सहन करते रहे हैं। अब तो बीकानेरियों को फाटक की आदत सी हो गई है। तभी तो बीकानेर के कुछ लोग इस परेशानी को ही ‘संतोष’ नाम देते हुए कहते हैं- “हमारा बीकानेर तो संतोषी है, अल्हड़ है, बेफिक्र है.. वगैरह-वगैरह।” मैं किसी की नाकामियों को ऐसी चासनी देने के पक्ष में कतई नहीं हूं और न ही ऐसे किसी चश्मे से मेरे शहर को देखना पसंद करता हूं। मैं चाहता हूं कि बात हो तो यथार्थ की हो। खारी भले ही हो, मगर खरी हो। इसीलिये आज की ‘मेरी बात’ में.. मैं हमारे नेताओं, मंतरियों को ’26 मिनट के भोगे हुये एक यथार्थ’ से ये बताना चाहता हूं कि फाटक बंद के दौरान बीकानेर की जनता कितनी दुश्वारियां झेलती हैं। ..तो आइये साहेब ! ‘मेरी बात’ में एक नये नज़रिये से रेलवे फाटक की दुश्वारियां समझते हैं। उम्मीद है, आप पढ़ेंगे और समझेंगे भी।
ताज़ा वाकया परसों यानी 10 अक्टूबर की रात का है। मुझे रात 8 बजे से 8:30 बजे के बीच किसी काम से केईएम रोड स्थित ‘रामदेव पान भंडार’ पहुंचना था। मैं शाम 7:45 बजे ही घर से ‘किंग एडवर्ड मेमोरियल रोड’ के लिये रवाना हो जाता हूं। हालांकि मैं रानी बाज़ार अंडरब्रिज के नीचे से गुजरते हुए, गली-कूचों से होते हुए मैं सिर्फ 20 मिनटों में ही वहां पहुंच सकता था लेकिन तकनीकी खामियों वाले इस ब्रिज के नीचे से गुज़रने से मुझे अक्सर डर लगता है। इसलिये मैंने रेलवे स्टेशन वाला रास्ता अख़्तियार करना ठीक समझा। मैं जब सांखला फाटक तक पहुंचता हूं तो देखता हूं कि वहां पूर्व संभागीय आयुक्त नीरज के. पवन का सपना चकनाचूर किया जा रहा था। वन-वे वाले सांखला फाटक को कुछ लोग दोनों साइड्स के लिये इस्तेमाल कर रहे थे। चाहता तो मैं भी वहां से निकल सकता था लेकिन पूर्व संभागीय आयुक्त की सोच के सम्मान में ऐसा करना उचित नहीं समझा। इसलिये मैंने मेरा नुवा अबोट इलेक्ट्रिक स्कूटर कोटगेट की तरफ मोड़ लिया। कोटगेट से होते हुए मैं जैसे ही केईएम रोड की तरफ बढ़ा, पीछे से आवाज़ आई- “दौड़ा..दौड़ा..दौड़ा, रेलवे फाटक बंद व्है।”
मैं कुछ समझ पाता इससे पहले ही आस-पास की गाड़ियों दौड़ने लगीं। जिसे..जैसे मौक़ा मिला, भागने लगा। मैंने घड़ी देखी, 8 बज रहे थे। “अपन को क्या टेंशन? रामदेव पान भंडार 200 मीटर ही तो दूर है। फाटक खुलते ही 1 मिनट में पहुंच जाऊंगा।” यह सोचकर मैंने स्कूटर की रफ्तार और कम कर दी।
तभी आवाज़ आई- “अरे.. हटावै नीं ई धोळे खिल्लै नै… करै है पगलिया।”
मैंने दाहिने तरफ देखा तो एक स्टाइलिश ब्लैक बुलेट बाइक पर 2 जेन ज़ी लड़के मुझको ऐसे घूर रहे था, मानो स्कूटर धीमे चलाकर मैंने कोई जुर्म कर दिया हो। ज़्यादा तकलीफ इस बात की हुई कि मेरे सवा लाख के नुवै अबोट स्कूटर को ‘धोळा खिल्ला’ कह डाला। हुंह..। फिर सोचा, चिल्ल कर यार।
खैर, वे दोनों मुझे पीछे छोड़ते हुए, साइलेंसर से पटाके की आवाज़ के साथ फाटक क्रॉस करने बाइक दौड़ाने लगे। लेकिन हाय री किस्मत ! उनके वहां तक पहुंचने से पहले फाटक बंद हो गया। ..और ऐसा फकत उन 2 लड़कों के साथ ही नहीं हुआ, बल्कि कई लोगों के साथ हुआ। वैसे, बीकानेर में बंद होते रेलवे फाटक में से गाड़ी निकालना, ऑलम्पिक जीतने से कम नहीं माना जाता। फाटक क्रॉस करने के बाद लोगों के चेहरे पर एक अजीब सा संतोष देखा जा सकता है। लेकिन..जो यह संतोष कमाने में नाकाम रहे, वे नाराज़ होने लगे। फाटक को लेकर खरी-खोटी सुनाने लगे।
पहला कमेंट उन्हीं जेन ज़ी लड़कों का आया, बोले- “फाटक बंद हुय ग्यो भायला..अपां’रै डांडिया पिरोग्राम री तो लंका ई लाग जासी।”
तभी उनके ठीक पीछे खड़ा एक ऑटोवाला बोला- “थोड़ी’क आगै ले भाया थारी मोटरसाइकल नै। टैक्सी मांय मरीज़ है।”
ये सुनते ही लड़कों का दिमाग़ सटक गया, बोले “आगै जग्यां दिखै कांई थन्नै? पैला सूं माथौ तप्योड़ो है, बीरै ऊपर तूं और दिमाग़ री मां-…… तो कांई फाटक रै माथै चढ़ जाऊं?”
ऑटोवाला कुछ न बोला। लेडी पेशेंट के साथ पीछे बैठी केयरटेकर से दबी आवाज़ में इतना ही कह पाया कि- “आजकल रै टिंगरीया मांय सेनशक्ति बची ही कायनी। चिंता ना करौ, फाटक खुलतै ही चालां”
मेरे बाईं तरफ एक थके से बुजुर्ग एक अन्य बुजुर्ग से शिकायत कर रहे थे- “न जाने इन फाटकों की समस्या कब ख़त्म होगी? आदमी फाटक खुलने का इंतज़ार करे कि समय पर घर पहुंच कर रोटी खाये?”
इस पर दूसरा बुजुर्ग जवाब देता है- “भाई साहब ! ये समस्या तो अपने मरने पर ही ख़त्म होगी। बरस बीत गये फाटकों की समस्या देखते हुए। मैं तो हर रोज़ कम से कम 2-3 बार फंसता हूं। अब तो डेली का काम हो गया है। एक दिन तो इन फाटकों के चक्कर में मेरे पौते का एग्जाम छूट गया। कहें किससे?”
इतने में एक युवक ने एंट्री मारी, बोला- “बाऊजी, ये फाटक नहीं, वोटबैंक है..वोटबैंक। समस्या हल हो गई तो वोटबैंक ख़त्म हो जाएगा न? इसीलिये तो इसका समाधान नहीं करवाया जाता। नहीं तो इतनी बड़ी समस्या थोड़े ही है, जिसका समाधान नहीं होगा..हम्म? हमारे मंतरी यहां से, संतरी यहां से।”
इस पर वो बुजुर्ग (थका-हारा) लगभग तिलमिला ही गया, बोला- “अजी ! नाम न लो मंतरी-विधायकों का। हमारे शहर के नेताओं में दम होता तो बीकानेर में इतनी ‘सूनवाड़’ थोड़े ही होती। कोई सुनवाई करने वाला ही नहीं है। अजी ! नेता हो तो अशोक गहलोत जैसा, जिसने जोधपुर को चमन बना दिया। शांति धारीवाल जैसा, जिसने कोटा को चमका दिया।”
इतने में वो युवक हंसते हुए बोला- “ऐसी बात तो नहीं है बाऊजी। करवाना तो अपने वाले भी चाहते ही होंगे लेकिन फायदों….”
इतने में ट्रेन का हॉर्न बज गया। मलाल रहा कि हॉर्न के चलते बंदे की बात दब गई। वैसे, जब-जब बीकानेर रेलवे फाटकों का मुद्दा उठता है, तब-तब ऐसे कई ‘हॉर्न’ बजकर इस मुद्दे को दबा देते हैं। बहरहाल, ये बीकानेर-‘दिल्ली’ एक्सप्रेस (संभवत: 22471) ट्रेन थी। जो हौले-हौले आगे बढ़ते हुई सबके सब्र का इम्तिहान ले रही थी। वहां खड़ा हर आदमी ‘दिल्ली वाली ट्रेन’ के निकल जाने का इंतज़ार कर रहा था। लेकिन शान-ओ-शौकत से सरकती बीकानेर-‘दिल्ली’ एक्सप्रेस सैकड़ों लोगों को चिढ़ा रही थी। चिढ़ाते-चिढ़ाते उसकी चाल और कम होती गई..और कम होते-होते ‘दिल्ली’ वाली ट्रेन बीचोंबीच ठस गई।
“हे भगवान ! पहले ही फाटक 12-13 मिनट इंतज़ार करवा चुका था। ऊपर से ये ट्रेन रुक गई।” आप विजुअलाइज करके जेहन में तसवीर उकेरने की कोशिश कीजियेगा कि वो मंजर कैसा रहा होगा। जहां ये रावण रुपी फाटक ठसक से सोया पड़ा है। कोई ‘समझौता एक्सप्रेस’ रुपी ट्रेन इतराती हुई वहां से गुजरती है। सैंकड़ों लोग फाटक के जागने की प्रतीक्षा करते हैं। उदास..निराश…हताश…रोज़मर्रा का काम नागा करते हुए लोग। तब कोई क्यों नहीं लिखता कि “ये रेलवे फाटक अपणायत और इंसानियत के लिये पहचाने जाने वाले शहर को दिन में कई बार विभाजित करता है। विभाजन का दर्द बहुत दुखता है।” बताइये, क्यों आदत में शुमार कर चुकी जनता के दर्द को लोग ‘संतोष’ रुपी सर्वनाम में पिरो देते हैं? इसको संतोष नहीं, परेशानी ही रहने दिया जाना चाहिये है। ..और उस दिन वहां खड़े लोग.. इसी परेशानी से परेशान हो रहे थे।
“अरे ! कोई पाणी लाओ..पाणी।” ऑटोवाला घबराया हुआ चिल्लाया। पीछे बैठी लेडी पेशेंट की तबीयत ख़राब हो रही थी। ऑटोवाले के तीसरी बार पानी मांगने से पहले ही पास का एक दुकानदार प्लास्टिक के मग में पानी ला चुका था। ऑटो के चारों तरफ लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। पास बैठी केयरटेकर महिला के चेहरे पर पानी की छींटें मारती है। महिला होश में आई, मगर तबीयत ख़राब लग रही थी। केयरटेकर बार-बार फाटक की तरफ बेबसी से देख रही थी। और क्या ही करती? ..मगर बेशर्म रेलगाड़ी अभी भी इठलाती हुई वहीं खड़ी थी।
“ऐसे तो कोई मर जाए..लेकिन तब भी ये फाटक नहीं खुले। आग लगे ऐसे फाटकों को।” अब तक थका-हारा दिख रहा वो बुजुर्ग ग़ुस्से से भरकर बोल रहा था। इसके बाद फिर एक दौर चला। रेलवे को, फाटक को, प्रशासन को, नेताओं को, राजनीतिक पार्टियों को गरियाने का। उन्होंने क्या-क्या कहा, वो सब मैं यहां नहीं लिख सकूंगा। माफ कीजिएगा।
बहरहाल, ट्रेन का हॉर्न बजा। इतनी गालियां सुनकर ट्रेन भी शर्मसार होकर वहां से चल पड़ी। लेकिन फाटक रूपी ‘रावण’ तो बड़ा दंभी निकला। सोया रहा, उठा नहीं। फाटक ‘अब खुलेगा कि तब खुलेगा’ की उधेड़बुन में 2 मिनट और जाया हो गये। शहर के बीचोंबीच इस ‘रावण’ को पसरे अब तक कुल 23 मिनट हो चुके थे। एक जना तौ लगभग चिल्ला ही उठा- “फाटक खोल रै। थारै….” ..लेकिन तब भी फाटक नहीं खुला। “गाळयां सूं कांई गूमड़ा हुवै है?”
अब तो वाकई इंतज़ार की इंतहा होने लगी थी। घड़ी में 8:25 का वक़्त हो गया था। अब तो मुझे भी देर होने लगी थी। चिंता होने लगी कि कहीं दुकान मंगळ न हो जाए। तभी कहानी में एक और ट्वीस्ट आया। ट्वीस्ट नहीं, गोधा (सांड) कहिये।
“आगै सूं हट ज्याओ… गोधो आयग्यो है, गोधो।”
मैंने पीछे मुड़कर देखा। एक मोटा-तगड़ा, नुकीले सींगों वाला सांड.. साउथ फिल्मों के किसी नायक की मानिंद, भीड़ को चीरता हुआ दौड़ रहा था। हम लोग संभलते, उससे पहले ही वो हमें और हमारी चिंताओं को छूते हुए हुए क्षणभर में फाटक के पास पहुंच गया। वो छोरे, जो ऑटोवाले से पहले कह रहे थे कि “आगै जग्यां दिखै कांई थन्नै?” वे अपनी ब्लैक बुलेट को छोड़ किनारे की तरफ फारिग हो चुके थे। जब किसी भी तरह के ‘गोधे’ किसी बंधन को नहीं मानते, फिर ये जानवर था। बिना सोचे-समझे फाटक को पारकर दूसरी तरफ निकल गया। वहां भी उसके ‘सम्मान/डर’ के चलते रास्ता अपने-आप बन गया।
वे जेन ज़ी लड़के फिर से अपनी बाइक की तरफ लौट चुके थे। ऑटोवाले ने मौक़े पर चौका मारा, बोला- “अबै जग्यां कियां हो गई रै?”
लड़के निरुत्तर थे। माहौल में हंसी फैल गई। वैसे, इस ख़ुशनुमा माहौल में एक बात पूछ लूं क्या? जब इन 26 मिनटों में इतने क़िस्से हो गये, तो रोज के फाटक बंद के 8-10 घंटों में कितने किस्से होते होंगे? क्या किसी के पास इसका हिसाब है? सरकारें तो फकत आंकड़ों की बातें करती हैं, क्या किसी के पास इसके आंकड़ें हैं कि पिछले 34 बरसों में ये बंद फाटक-
–कितनी लड़ाइयां करवा चुका होगा?
-ऐसे कितने गोधों को झेल चुका होगा?
-कितनों की नौकरियां खा चुका होगा?
-कितने कड़वे क़िस्सों को जन्म दे चुका होगा?
-कितनों बच्चों को परीक्षा देने से रोक चुका होगा?
-कितने मरीजों को ऐसे ही जाम में फंसा दिया होगा?
-कितने बुजुर्गों को समय पर घर नहीं पहुंच दिया होगा?
-ये ‘रावण’ कितने लोगों के कितने घंटों का भख कर चुका होगा?
ज़रा सोचिये कि अगर 34 साल पहले यह समस्या हल हो जाती तो हमारा बीकानेर कितना आगे निकल चुका होता। रतन टाटा ऐसे ही तो नहीं कहते थे कि “समय.. पैसों से क़ीमती होता है।” सोचिये, अब तलक कितने लोगों का कितना सारा समय बच चुका होता। इसीलिये कहता हूं कि बीकानेर को ‘संतोषी शहर’ का तमगा देना छोड़ दीजिये। इस तमगे ने हमारा बहुत नुक़सान किया है।
बहरहाल, हमारे केन्द्रीय मंत्री अर्जुन राम (यहां क्लिक करके 20.25 पर रोप-वे टेक्नोलॉजी वाला बयान सुन सकते हैं), राजस्थान के पूर्व मंत्री बी. डी. कल्ला (यहां क्लिक करके 9.10 पर सुन सकते हैं) और पूर्व विधायक आर के दास गुप्ता बाइपास के प्रस्ताव को सिरे नहीं चढ़ा पाए। कभी एलिवेटेड रोड तो कभी अंडर ब्रिज, कभी ओवर ब्रिज तो कभी बाइपास, कभी रोप वे तो कभी कुछ.. ऐसे कैसे रेलवे फाटक की उलझन सुलझेगी, माननीय नेताओं? नए विधायक जेठानंद व्यास अंडर ब्रिज बनाने के स्वीकृत प्रस्ताव को लागू करवाने में लगे हैं। अब राम ही जाने, क्या होगा? ..लेकिन क्या बीकानेर में भी कोई ऐसा ‘राम’ आएगा, जो फाटक रुपी इस ‘रावण’ का संहार करेगा।”
मैं इन सबके बारे में सोच ही रहा था कि फाटक खुल गया। फिजा में अंततोगत्वा ख़ुशियों की बहार आ गई। ‘भूंअय..भूंअअय..भूंअअअअय..’ के साथ गाड़ियों के एक्सिलरेटर घूमने लगे। फाटक को जल्द से जल्द पार कर लेने की हौड़ मच गई। मैं भी इस हौड़ का हिस्सा बन गया। सरपट भागता हुआ ‘रामदेव पान भंडार’ पहुंचा।
देखा, तो दुकान के मालिक ओम जी दुकान मंगळ कर रहे थे। मुझको देखते ही बोले-
“आज तो लेट हुयगी। म्हनै भी कट्ठेई जावणौ है। अपां काल मिलसां। तूं ई सागी टेम आ जाई।”
रेलवे फाटक रूपी रावण चौबीसों घंटे परेशान कर रहा है। इसको मारने की दशकों से योजनाएं बन रही हैं किंतु लगता है ये कागजी योजनाएं आगे बढ़ने वाली नहीं।
कल छत्तीसगढ़ से आए साहित्यकार मित्र द्वारिका प्रसाद जी अग्रवाल को सुनने रानी बाजार जिला उद्योग संघ सभागार पहुंचने में इसीलिए विलंब हुआ क्योंकि सांखला फाटक बंद था। लगभग 25 – 30 मिनट वहां खराब हुए।
अग्रवाल जी को सुनने आप भी आए हुए थे।
बहुत खरा खरा लिखा है आपने। बधाई।
प्रोत्साहन के लिये शुक्रिया।