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विमर्श : क्या दीक्षांत समारोह का यही अभिप्राय है?

बीकानेर संभाग मुख्यालय में 5 विश्वविद्यालय हैं। एसकेआरएयू, एमजीएसयू, राजुवास, बीटीयू और आरएनबी ग्लोबल यूनिर्वसिटी। इन पांचों विश्वविद्यालयों से हर साल हजारों विद्यार्थी शिक्षित होकर निकलते हैं। इन पांचों विश्वविद्यालयों में हर साल दीक्षांत समारोह भी होते हैं। वैसे दीक्षांत का अर्थ है- विद्यार्थी को शिक्षित करने के बाद समाज-राष्ट्र की सेवा की शपथ दिलाकर समाज में भेजना होता है। प्राचीन समय में तो गुरू अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के बाद उन्हें दीक्षित किया करते थे। उनसे राष्ट्र-सेवा का आव्हान करते थे। लेकिन सवाल उठता है कि आज दीक्षांत समारोह इस मूल भावना के कितना नजदीक है ? क्या विद्यार्थियों में दीक्षित होने की भावना का संचार हो पा रहा है? यह चिंतन-मनन करने वाली बात है।

वैसे, बीकानेर में दीक्षांत समारोह का आयोजन बहुत ही भव्य तरीके से किया जाता है। जिसमें कुलाधिपति महामहिम राज्यपाल आते हैं। कुलपति अतिथि भी बुलाते हैं। तमाम व्यवस्थाएं चाक-चौबंद होती हैं। होये भी क्यों न? पूरा समारोह महामहिम और अतिथियों पर केन्द्रित जो रहता है। लेकिन जो नहीं होता, वो है- असल मायनों में दीक्षांत समारोह का मनाया जाना। जिस समारोह में विद्यार्थियों को केंद्र में रखा जाना चाहिये, उसमें वे फकत डिग्रियां लेने की औपचारिकता का हिस्सा मात्र लगते हैं। ऐसे समारोहों में विद्या और विद्यार्थियों की कितनी बात होती है, यह जानना हो तो रिकॉर्ड उठाकर देख लीजिए। विद्यार्थियों की संख्या ज्यादा होने के चलते कुछ चुनिंदा विद्यार्थियों को ही डिग्रियां दी जाती हैं। इस तरह दीक्षांत समारोह अपने मूल अभिप्राय से हटकर दूसरे मुद्दों पर केन्द्रित हो गया है। इस मंच का उपयोग प्रशासनिक और राजनीतिक संबंध बनाने, अप्रत्यक्ष रूप से ख़ुद को स्थापित करने में किया जाने लगा है। मंच पर कुलपति अपने कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाते नज़र आते हैं। इस मंच से आयोजक जिन इतर उद्देश्यों की पूर्ति में लगे हैं, जो समाज से छिपा हुआ नहीं है। बीकानेर के एक वि. वि. के दीक्षांत समारोह में कुलाधपति का तो भावभीना स्वागत किया ही उनके ओ.एस.डी और सार्जेंट का भी उतनी ही मुश्तैदी से मंच से स्वागत किया गया। पुस्तकों का विमोचन, अतिथियों का यशोगान और मेहमाननवाजी में विद्यार्थी और विद्याध्ययन के बाद दीक्षा का महत्व गौण ही रहता है।

जिस व्यवस्था में कुलपतियों की नियुक्तियों पर सवाल उठते रहे हैं, जिन व्यवस्था में विधानसभा तक में कुलपतियों की नियुक्ति मुद्दा बना रहता है, उस व्यवस्था में कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि वहां दीक्षांत समारोह की मूल भावना का ध्यान रखा जाएगा? वहां तो ऐसे मंचों को भुनाने के मैनेजमेंट का ही खेला होगा न? बहरहाल, आज बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती है। हां, वही अंबेडकर साहब, जो शिक्षा के महत्व को लेकर कहा करते थे कि “शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पीएगा वो दहाड़ेगा।” उनकी जयंती पर कुलाधिपति और कुलपति को यह विचार करना चाहिये कि दीक्षांत समारोह का इस तरह मनाया जाना, क्या शिक्षा और अंबेडकर साहब का असली सम्मान कहलाएगा? क्या दीक्षांत समारोह का यही अभिप्राय है?

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