तारीख़- 5 फरवरी 2024, दिन-सोमवार। संभागीय आयुक्त उर्मिला राजौरिया अचानक बीकानेर संभाग के सबसे बड़े अस्पताल- ‘पीबीएम’ पहुंचती हैं। वे यहां के मुख्य प्रशासनिक भवन समेत जनाना अस्पताल, ब्लड बैंक, ट्रोमा सेन्टर, ओ.पी.डी. भवनों का निरीक्षण करती हैं। इस निरीक्षण के दौरान उन्हें मरीज़ों को दी जा रही सभी चिकित्सा सेवाओं को लेकर संतोष होता है और सिर्फ सफाई व्यवस्था को लेकर असंतोष। इसके बाद वे पीबीएम अधीक्षक को साफ-सफाई करवाने के निर्देश देती हैं। इस तरह उनका ये निरीक्षण सुर्खियां बनकर मीडिया में छप जाता है। इस निरीक्षण के 2 दिन बाद 8 फरवरी को बीकानेर जिला कलेक्टर भगवती प्रसाद कलाल भी पीबीएम अस्पताल पहुंचते हैं। इस दौरान वे साफ सफाई के संबंध में दिए गए निर्देशों की पालना में लापरवाही पाए जाने पर संबंधित कंपनी पर 90 हजार रुपए की पेनल्टी लगाते हैं। साथ ही निर्देश देते हैं कि “सभी वार्डों में लगे डिजिटल सूचना बोर्ड पर योजनाओं की जानकारी के साथ-साथ ड्यूटी पर नियुक्त नर्सिंग स्टाफ और चिकित्सा अधिकारी के मोबाइल नंबर आवश्यक रूप से उपलब्ध रहें।” इस तरह ज़िला कलेक्टर के निरीक्षण भी मीडिया की सुर्खियों में तब्दील हो जाता है।
सवाल उठता है कि 2 बड़े प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा पीबीएम का निरीक्षण को क्या नाम दिया जाये? ‘प्रशासनिक संवेदनशीलता’ या प्रशासनिक जिम्मेदारी, रोगियों के प्रति ‘मानवीयता’ या सरकारी आदेश की कोरी अनुपालना? सब अपने-अपने तरीकों से इसे अलग-अलग ‘नाम’ देंगे। मगर मेरे नज़रिये में इसे बंद आंखों से किया गया ‘औचक निरीक्षण’ कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। बंद आंखों से? लेकिन क्यों? तो जवाब है कि इस निरीक्षण में आम जन की वे समस्याएं तो दिखाई देने के बाद भी नहीं देखी गई। मसलन-
–क्या संभागीय आयुक्त और जिला कलेक्टर को इलाज में अनदेखी, देरी, लापरवाही या सही इलाज नहीं होने जैसी खामियां दिखाई नहीं दीं?
-क्या दोनों प्रशासनिक अधिकारियों को ऐसे कोई मरीज़ नहीं मिले, जिनको शिकायत रहती है कि उन्हें डॉक्टर के घर जाकर दिखाना पड़ता है।
-क्या दोनों को यह शिकायत भी नहीं मिली कि सीनियर डॉक्टर्स अस्पताल में मिलते ही नहीं है?
-क्या दोनों अधिकारियों को इलाज, जांच और दवाओं के नाम पर पैसे ऐंठने की शिकायतें भी नहीं मिलीं?
-क्या दोनों को पीबीएम अस्पताल में पार्किंग के नाम पर वसूली भी नहीं दिखाई दी?
-क्या इस निरीक्षण के दौरान उन्हें चिकित्सा व्यवस्था में कहीं कॉकस नज़र नहीं आया?
-क्या दोनों ने गौर किया कि अस्पताल में चिकित्सकीय उपकरण बेकार तो नहीं पड़े हैं?
-क्या उन्होंने ध्यान दिया कि कहीं संसाधनों का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा है?
इन सभी सवालों का जवाब है- नहीं। उन्हें मिला तो सिर्फ साफ-सफाई में खामी। इसके अलावा पीबीएम में सारी व्यवस्थाएं दुरुस्त नज़र आईं। इसीलिये, अगर दोनों को जनहित से जुड़ी ये समस्याएं नहीं दिखीं, तो उनके निरीक्षण को बंद आंखों से किया गया कहना ही ठीक होगा। औपचारिकता मात्र ! नहीं तो, पीबीएम अस्पताल में घुसने से लेकर वापस बाहर निकलने तक व्यवस्थाओं में इतनी खामियां हैं कि किसी को भी आसानी से नज़र आ जाये। फिर इतने सीनियर अधिकारियों से कैसे चूक हो गई? अगर वे ‘ले-मैन’ के नज़रिये से देखते तो उन्हें व्यवस्थाओं में खामियों का पुलिंदा मिलता। अब जब खामियों की जानकारी ही नहीं है तो फिर सफाई के अलावा और क्या ही दिखाई देगा? अफसोस ! राजोरिया मैडम और कलाल साहब आप दोनों ही अपने निरीक्षण में पीबीएम में सुधार के बिंदुओं और वास्तविक हालातों से नामालूम ही रहे। ऐसे में ये निरीक्षण प्रशासनिक ‘खानापूर्ति’ के अलावा कुछ भी नहीं है। यक़ीन न हो तो आप ख़ुद एनालिसिस करके देख लें कि आपके निरीक्षण से अस्पताल की व्यवस्था पर कितना असर हुआ क्या? अगर रत्तीभर भी असर हुआ होता तो कलेक्टर को पीबीएम में साफ-सफाई में लापरवाही बरतने के लिये कार्यरत कंपनी पर 90 हजार रुपए जुर्माना नहीं लगाना पड़ता।
खैर, जनहित की समस्याओं को समझने के लिये जनता के जूते में अपना पांव रखना ज़रुरी होता है। ऐसा किया होता तो इल्म हो जाता कि संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल ख़ुद ही बीमार पड़ा है। लेकिन सा’ब ! ‘जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई? हकीकत तो यह है कि इस निरीक्षण ने अफसरों की दक्षता में कमी और औपचारिक कार्य प्रणाली को बेपर्दा कर दिया है। इससे जनता में क्या संदेश गया है, यह जनता की प्रतिक्रिया से जान सकते हैं। देखा जाये तो इस निरीक्षण से अस्पताल प्रशासन में तो इन दोनों अफसरों की हेठी ही हुई है कि वे अस्पताल व्यवस्था को समझ नहीं पा रहे हैं। अगर क़ाग़ज़ी निर्देशों से व्यवस्था सुधरती होती तो सरकारी स्तर पर अभियान चलाने की काहे ज़रुरत पड़ती? नई सरकार अस्पताल में सेवाओं और व्यवस्थाओं में सुधार देखना चाहती है। संभागीय आयुक्त और कलेक्टर का निरीक्षण इसी का हिस्सा है।