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हे लोकतंत्र के पुजारियों ! 'लोकतंत्र'... अहा ! सुनने में यह शब्द कितना मनोहर लगता है. लोक का अर्थ 'जनता' और तंत्र का अर्थ 'शासन' होता है. जनता उसी लोकतंत्र की पूजा करने के लिए पुजारी चुनती है, जिन्हें हम राजनेता पुकारते हैं. मगर अफसोस ! लोकतंत्र के पुजारी वैचारिक रूप से इतने रुग्ण होते जा रहे हैं कि इनका मन लोकतंत्र की पूजा में नहीं रमता. और जब पुजारियों का मन ही मलिन हो जाएगा तो लोकतंत्र रुपी मंदिर भी अस्वस्थ होता जाएगा. *बात किसी 1-2 राज्य या राजनेता की नहीं है बल्कि समूचे भारतवर्ष की है. गोया ऐसी कोई बयार सी बह गई हो. पश्चिमी बंगाल में ममता बनर्जी बनाम बीजेपी हो या फिर कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार बनाम पार्टी के 23 नेता. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बनाम कांग्रेस हाईकमान हो या फिर राजस्थान में गहलोत बनाम पायलट. राजस्थान प्रदेश में वसुधंरा राजे बनाम बीजेपी का विरोधी खेमा हो फिर देवी सिंह भाटी बनाम केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल. हर तरफ बगावतें बिखरी हैं और अदावतें अकड़ी हैं. सरकारें गिराई जा रही हैं, वोटबैंक की राजनीति के चलते मूल्यों की राजनीति भेंट चढ़ रही है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही वगैरह-वगैरह. *ऐसे में आपको पुजारी बनाने वाली हम जनता आपसे पूछना चाहती है कि क्यों आप पर सत्ता की लोलुपता इतनी हावी हो गई है? क्यों आप लोकतंत्र की जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते? क्यों आपने स्वार्थ, मान, बड़ाई और अहंकार की चादर ओढ़ ली है? क्यों आपने ईर्ष्या और द्वेष को अपना आभूषण मान लिया है? आख़िर क्यों आपको सही और ग़लत का भान नहीं रहने लगा है? एक बात पूछें? कहीं सत्ता के मद में आपका मानसिक संतुलन तो नहीं बिगड़ गया है? *हम आपसे उम्मीदें लगाए बैठे हैं कि आप जनता के साथ खड़े होंगे. जरुरतमन्द का सहयोग करेंगे, स्वच्छ वातावरण तैयार करेंगे, ग़रीब और राष्ट्र की अंतिम इकाई को सम्बल देने का काम करेंगे. इस लोकतंत्र की पूजा करेंगे. लेकिन आप...! अपनी अंतरात्मा से पूछिए, क्या आपको ये जिम्मेदारी महसूस नहीं होती? क्या आप समाज के ऋण से उऋण होना नहीं चाहते? क्या आपका राष्ट्रधर्म पूरा करने का मन नहीं करता? क्या आपको ईश्वर द्वारा प्रदत सामर्थ्य का सदुपयोग करने का मन नहीं करता? क्या आप जनतंत्र को मजबूत करने और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भागीदारी नहीं देना चाहते? अगर आपका जवाब 'हां' है तो संसद में लगी बापू की प्रतिमा को देखकर मंथन जरूर कीजिएगा, जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया था. *हे लोकतंत्र के पुजारियो ! अब तुच्छ स्वार्थ छोड़ दीजिए, उठा-पटक की राजनीति से ऊपर उठकर समाज को दिशा दीजिए. ईर्ष्या-द्वेष त्यागकर निर्लिप्त भाव से जीवन को समर्पित कर दीजिए. आप भी जानते हैं कि समाज में आपकी अलग अहमियत है, इसलिए उस अहमियत के होने को साबित कर दीजिए, लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रहे, ऐसे डग भरिए. सुनिए ! अब लोकतंत्र की सच्ची सेवा कीजिए न ! *कहते हैं कि जो मन के अंदर होता है, दरअसल मंदिर तो वही होता है. और जिसका मन ही मैला हो, तो उसकी स्तुति में फिर कितना असर होगा? इसलिए हे लोकतंत्र के पुजारियों ! वैचारिक रुग्णता को दूर कीजिए तभी लोकतंत्र की सच्ची सेवा हो पाएगी. आप स्वस्थ रहेंगे तभी लोकतंत्र स्वस्थ रहेगा.
राजस्थान के कोटा से सूबे की सबसे बड़ी ख़बर आ रही है. कोटा के जेके लोन अस्पताल में पिछले 24 घंटे में 9 नवजात की मौत हो चुकी है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक "जेके लोन अस्पताल में हर साल हज़ार के भी पार बच्चों की मौत हो जाती हैं. जान गंवाने वाले 9 बच्चों के परिवारवालों का आरोप है कि "जेके लोन अस्पताल का स्टाफ बेहद लापरवाह है. कर्मचारी ड्रिप लगाकर चाय पीने चले जाते हैं. वहां बैठकर हंसी-मजाक करते रहे हैं. रात को जब बच्चा तड़प रहा था, तब उसे देखने कोई भी नहीं आया. नर्सिंग स्टाफ ने सुबह डॉक्टर को दिखाने की बात कहकर भगा दिया. जब डॉक्टरों को बच्चे की परेशानी बताई तो उनका जवाब था कि बच्चा तो रोता ही है." *कोटा के JK Lone Hospital में 9 नवजात की मौत से आप राजस्थान की मेडिकल कॉलेज से संबंधित हॉस्पिटलों के हालात का अंदाजा लगा सकते हैं. जांचें होती आई हैं, मुद्दे उठते रहे हैं लेकिन नतीजे वही ढाक के तीन पात रहे हैं. चेताने में गुरेज नहीं कि बीकानेर के पीबीएम हॉस्पिटल भी ऐसी लापरवाहियों से अछूता नहीं है. यहां भी इतनी अव्यवस्थाएं फैली हैं कि गिनते रह जाएंगे. जिनके सबसे बड़े कारण हैं- राजनीतिक हस्तक्षेप और बाहरी दबाव. ऐसा नहीं है कि इन अव्यवस्थाओं को सुधारने की कोशिशें ही नहीं हुईं. हुईं लेकिन नतीजे हर बार सिफर ही रहे. पीबीएम के नए अधीक्षक फिर से नई कवायद कर रहे हैं. पीबीएम अस्पताल में सुधार का माइक्रो प्लान तैयार किया जा रहा है. *लेकिन पीबीएम को सुधारने की कवायद करने से पहले नए अधीक्षक ख़ुद से ये सवाल ज़रूर कर लें कि क्या वो पीबीएम को राजनीतिक हस्तक्षेप और बाहरी दबाव से मुक्त करवाने का सामर्थ्य रखते हैं? क्या वो जानते हैं कि उनसे पहले भी कई अधीक्षकों ने सुधार की कोशिशें कीं थी, उनका क्या हश्र हुआ था? कौन नहीं जानता कि पीबीएम में दलालों ओर गिरोहबंदी का बोलबाला है. तत्कालीन अतिरिक्त संभागीय आयुक्त की देखरेख में प्रशिक्षु आईएएस ने अध्ययन रिपोर्ट तैयार की थी. ये रिपोर्ट सभी संबंधित चिकित्सालयों के संदर्भ में राज्य सरकार को सौंपी गई थी. उस रिपोर्ट में सुधार के माइक्रो औऱ मेगा प्लान के साथ सुझाव थे. लेकिन अफसोस ! आज भी वे ही विसंगतियां बनी हुई हैं. *अधीक्षक महोदय ! आपको पता होना चाहिए कि आपके अधीनस्थ लोग किन-किन के बिठाए हुए मोहरें हैं, जो जाने-अनजाने में आपसे ही उनके फायदे का आदेश करवाते हैं. आप क्या करेंगे ? बताइये. क्या आपके पास इसका कोई माइक्रोप्लान है? करोड़ों की सफाई के ठेके, संविदाकर्मी के पीछे का कॉकस आपसे छुपा है क्या? बाहर मेडिकल इक्यूपमेंट का धंधा करने वालों के चहेते ही आपके आंख, नाक और कान है. अस्पताल के चारों तरफ जितने अतिक्रमण हैं, उनके भी आका है. अस्पताल में दूध, सप्लाई, रसोड़े से लेकर चिकित्सकीय सामग्री की आपूर्ति से लेकर जहां भी हाथ डालेंगे, वहां छेद ही मिलेंगे. एकबारग़ी डॉक्टरों की बात छोड़ दीजिए, उनमें इंसानियत तो है. ज़रा अस्पताल के चिकित्सा उपकरणों के हाल जान लीजिएगा. मूलचंद हल्दी राम अस्पताल की धरातल और फिर ट्रोमा में हो रहा खेल भी समझ लीजिएगा. निगरानी औऱ अव्यवस्था के खिलाफ कार्रवाई यहीं से आज भी प्रमाण के साथ कर सकते हैं. प्रमाण इतने दिनों की सुपरिडेंटशिप से मिल ही गए होंगे. *इन तमाम बातों पर मंथन करने के बाद भी अधीक्षक सुधार करने का सोचें नहीं तो सबसे पहले तो वो नेता ही उन्हें रोक देंगे जो पीबीएम के भरोसे नेतागिरी करते आए हैं. सनद रहे कि पीबीएम हॉस्पिटल का कॉकस तोड़ना अभिमन्यु की व्यूह रचना से खेलने जैसा है. लेकिन ये भी याद रहे कि 'हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-ख़ुदा'. आखिर अकेले बापू ने भी तो शक्तिशाली अंग्रेजों से देश को मुक्ति दिलाई थी. गर संकल्प शक्ति है तो साथ देने वालों की भी कमी नहीं. दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो कामयाबी जरूर मिलेगी, साथ ही आपका पीबीएम अस्पताल राज्य के दूसरे सरकारी अस्पतालों के लिए एक नज़ीर के तौर पर जाना जाएगा. इसलिए उठाइये बीड़ा और सुधार डालिए पीबीएम अस्पताल.
पंचायत राज चुनावों में जहां एक तरफ बीजेपी ने पूरे राजस्थान में पटखनी दे दी वहीं बीकानेर में कांग्रेस ने बीजेपी को धूल चटा डाली. बीकानेर ने कांग्रेस और अशोक गहलोत पर भरोसा जताया है. लेकिन बीकानेर कांग्रेस में गहलोत-पायलट जैसी अंदरुनी गुटबाज़ी और खींचतान साफ तौर पर दिखाई दी. इसके चलते कांग्रेस को 9 में से 5 प्रधानों से ही संतोष करना पड़ा. जबकि 4 प्रधान की सीटों पर कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत था। वहीं 4 सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी की स्थिति बराबर थी। उम्मीद यह थी कि 4 में से 3 कांग्रेस के पाले में जाएगी, लेकिन आपसी गुटबाज़ी के चलते ऐसा नहीं हो सका. बीजेपी का सिर्फ एक प्रधान की सीट लूणकरणसर में बहुमत था लेकिन प्रधान 3 सीटों पर बना लिए। उल्टा कांग्रेस ने बज्जू पंचायत समिति की 1 सीट बहुमत होने के बावजूद खोनी पड़ी। उधर कांग्रेस में प्रतिपक्ष में नेता रहे रामेश्वर डूडी और गोविन्द मेघवाल के बीच गुटबाजी ने भी कांग्रेस को नुक़सान ही पहुंचाया. *वहीं गोविन्द मेघवाल पार्टी में जीत की सारी बाधाएं पार करने के बावजूद डूडी के विरोध के चलते बेटी को जिला प्रमुख बनाने का ख्वाब पूरा नहीं कर सके. धुरंधर नेता देवी सिंह भाटी ने चुपके से ही कांग्रेस के मंत्री भंवर सिंह भाटी को सबक सिखा गए. उनके विधानसभा क्षेत्र के गढ़ में कांग्रेस की बहुमत वाली पंचायत समिति बज्जू में मंत्री को पटखनी देकर भाजपा के समर्थन से निर्दलीय प्रधान बना दिया. *कुल मिलाकर पंचायत राज चुनावों में कांग्रेसी नेताओं के बीच गुटबाज़ी का जमकर खेल खेला गया. वहीं देवी सिंह भाटी, रामेश्वर डूडी, गोविंद मेघवाल ने राजनीतिक पैंतरेबाज़ी चली. बीजेपी से पहली बार चुनाव जीते विधायक सुमित गोदारा और बिहारी विश्नोई अपने विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी के प्रधान बनाने में कामयाब रहे. इस चुनाव में सबसे ज्यादा नुक़सान अगर किसी को हुआ तो वो हैं- सांसद अर्जुन राम मेघवाल. पंचायत राज में बीजेपी की लहर के बीच उनका बेटा जिला परिषद सदस्य का चुनाव हार गया. खैर, उनसे भी ज्यादा अफसोस उन्हें चुनाव हराने वाले गोविन्द मेघवाल को रहा कि उनकी बेटी के जिला प्रमुख बनने की सारी सीढ़ियां चढ़ने के बाद आख़िरी सीढ़ी पर अड़चन खड़ी कर दी गई। राजनीत है ही कुछ ऐसी शै. जहां पग-पग पर शह और मात का खेल खेला जाता है. यहां जो जीता, वही सिंकदर. और जो हार गए, उन्हें अफ़सोस कहे का?
बीकानेर पंचायत समिति चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन करके भाजपा को पीछे धकेल दिया है। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा केंद्रीय राज्य मंत्री और बीकानेर के सांसद अर्जुन राम के बेटे रविशेखर की हार के हो रहे हैं. जिसके चलते केंद्रीय राज्य मंत्री अर्जुनराम मेघवाल की साख को जनता ने धरातल दिखा दिया है. उनका बेटा नौकरी छोड़कर पिता की साख के बलबूते सियासी मैदान में उतरा। पिता ने भी पुत्र की इच्छा को देखते हुए उसे जिला परिषद में प्रत्याशी बनवा दिया. लेकिन जनता ने पिता-पुत्र की इस प्रबल इच्छा पर पानी फेर दिया. *इन चुनावों में अर्जुन का तीर निशाने पर न लग सका और गोविंद की जय-जयकार हो गई. मंत्री पुत्र की क़रीब ढाई हजार वोटों से करारी शिकस्त मिली. इसी के साथ रविशेखर के जिला प्रमुख बनने की व्यूह रचना भी धराशायी हो गई. चुनाव भले ही छोटा हो लेकिन इन चुनावों को अर्जुनराम मेघवाल की साख का लिटमस टेस्ट बताया जा रहा था. और अब इस छोटे से चुनाव में उनकी हार से मंत्री और पुत्र दोनों की साख पर बट्टा लग चुका है. *मंत्री बेटे को जिला परिषद सदस्य का चुनाव हराकर जनता ने उन्हें धरातल दिखा दिया है. बीकानेर संसदीय क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है। मोदी के कवच, कांग्रेस के कमजोर उम्मीदवार और भाजपा की लहर के चलते मेघवाल चुनाव जीतते रहे हैं। बीकानेर संसदीय क्षेत्र के भाजपा विधायक और नेताओं से मेघवाल के कोई खास विश्वास के सम्बंध नहीं रहे हैं। भाजपा नेता व पूर्व मंत्री देवी सिंह भाटी ने मेघवाल के विरोध में भाजपा से इस्तीफा दे दिया था। वसुंधरा राजे का पूरा गुट स्थानीय स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक मेघवाल के खिलाफत करता रहा है। भाजपा के जो लोग उनके नजदीकी हैं, उनमें राजनीतिक क्षमता जैसा गुण नहीं है. वे तो खुद मेघवाल की साख से अपना राजनीतिक सिट्टा सेंकना चाहते हैं। *मंत्री ने बेटे के इस छोटे से चुनाव में हार के कई दूरगामी परिणाम होंगे। ये परिणाम उनके विरोधियों के लिए बड़ा मुद्दा बन सकते हैं. अब अपनी पार्टी, सरकार और मतदाताओं के बीच मंत्री की पहले जैसी साख नहीं रह गई है। यह सच है कि अर्जुन राम इस बार पार्टी में भारी विरोध के बावजूद मोदी लहर से चुनाव जीते। इस जीत को वे अपनी लोकप्रियता मानकर भूल कर रहे हैं। इसका जनता उनकी साख पर बेटे ने लड़े चुनाव में हराकर आईना दिखा दिया है। दरअसल उनकी राजनीति का यही सच है। वैसे अर्जुन राम जमीन से उठे इंसान हैं। वे जीवन का सच जानते हैं। मूलतः उनका स्वभाव भी आध्यात्मिक हैं. उनमें आत्मविश्लेषण भी करने मनोबल भी है। अपनी साख पर आई इस आंच को वे समय रहते सुधार सकते हैं। लोकतंत्र में अवसर है लेकिन बपौती कतई नहीं। सनद रहे कि कांग्रेस भी परिवारवाद के चलते रसातल में चली गई। जनता ने मेघवाल को परिवारवाद की अनुमति नहीं दी है। सोचिएगा मेघवाल जी !
राजस्थान के 21 जिलों में जिला परिषद और पंचायत समिति के चुनाव नतीजे आ चुके हैं। जिनमें बीजेपी ने 13 जिला परिषदों में बढ़त हासिल की है, जबकि कांग्रेस पांच जिला परिषदों तक ही सिमट कर रह गई. इन 21 जिलों की 222 पंचायत समितियों में भी बीजेपी का पलड़ा भारी रहा है. माना जा रहा था कि इन चुनावों में कांग्रेस का पलड़ा भारी रहेगी, लेकिन नतीजों ने सारे होने से इनकार कर दिया. *जहां एक तरफ राज्य में बीजेपी का बोलबाला रहा, वहीं बीकानेर ज़िले में बीजेपी की बोलती बंद हो गई. यहां के पंचायत चुनावों में कांग्रेस ने हर स्तर पर बढ़त हासिल की है. कांग्रेस के मंत्री भंवर सिंह भाटी और विधायक गोविंद मेघवाल ने पार्टी और जनता के बीच अपनी साख बढ़ाई है। ये उनके राजनीतिक भविष्य के लिए शुभ संकेत ही हैं। वहीं बीजेपी का नेतृत्व संभाल रहे नेता राज्य के परिणामों के बनिस्बत अयोग्य साबित हो गए। *प्रदेश में ग्रामीण बीकानेर के मतदाताओं ने अशोक गहलोत सरकार पर भरोसा जताया है। बीकानेर में कांग्रेस पार्टी पिछले चुनाव की तुलना में बेहतर स्थिति में आई है। कुल 9 पंचायत समितियों औऱ जिला परिषद में कांग्रेस की बढ़त रही है। जिला प्रमुख कांग्रेस का बनना तय है। वहीं 9 पंचायत समितियों में सवार्धिक प्रधान कांग्रेस के ही बनेंगे। इसका श्रेय भँवर सिंह भाटी और गोविंद मेघवाल को जाएगा। जिला परिषद पर विशुद्ध रूप से कांग्रेस काबिज है। कुल 9 पंचायत समितियों में से भाजपा को एक पंचायत समिति में बहुत मिला है। बीजेपी विधायक सुमित गोदारा पार्टी में हीरो बने हैं। पूर्व मंत्री वीरेंद्र बेनीवाल पार्टी की सत्ता का फायदा नहीं ले पाए। भाजपा के युवा विधायक गोदारा ने अपना राजनीतिक कौशल साबित कर दिया है।डूंगरगढ़ में तारा चन्द सारस्वत फिसड्डी रहे। उनका देहात अध्यक्ष होने पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। देहात में भाजपा हर स्तर पर पिछड़ी है। इसकी जिम्मेदारी सांसद, विधायक से ज्यादा देहात अध्यक्ष को जाती है। अध्यक्ष का संगठन में कोई प्रभाव साबित नहीं हो सका है। मंगला राम गोदारा उनके विधानसभा क्षेत्र में प्रभावी रहे हैं। भाजपा की तुलना तो माकपा भी ठीक स्थिति में रही। कांग्रेस से रामेश्वर डूडी, भाजपा के बिहारी विश्नोई बराबर रहकर अपनी साख बरकरार रख पाए हैं। देवी सिंह भाटी निष्क्रिय रहे या कुछ नहीं कर पाए। सांसद अर्जुन राम मेघवाल को नीचे देखना पड़ा। *खैर, जो भी हुआ लेकिन कांग्रेस का अच्छा हुआ। पार्टी के भीतरी संकट के बाद विश्वास बढ़ना पार्टी के लिए अच्छा संकेत है। पंचायत समिति की 9 सीटों में से 4 में कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत है। भाजपा मात्र एक सीट पर स्पष्ट बहुमत में है। 4 सीटों पर भाजपा कांग्रेस बराबर की स्थिति में इन सीटों पर अन्यों का झुकाव कांग्रेस की तरफ बताया जा रहा है। इससे स्प्ष्ट है पंचायत राज में भाजपा ने अपनी पैठ खो दी है। जिम्मेदार नेताओं की राजनीतिक भूमिका पर यह बड़ा सवाल है।
स्वास्थ्य मंत्री जी ! भगवान आपको शीघ्र स्वस्थ करें। आप जल्द ही कोरोना निगेटिव होकर स्वास्थ्य लाभ लें। हर सरकारी अस्पताल में कोरोना पीड़ित मरीज़ के लिए ईश्वर से यही प्रार्थना है क्योंकि अस्पतालों और चिकित्सा व्यवस्था की दूसरी तस्वीर उद्दिग्नता से भरी है। जयपुर के ही मेरे एक डॉक्टर मित्र का कहना है कि राजस्थान सरकार सूझ-बूझ से कोरोना संकट का मुक़ाबला कर रही है। इसका प्रमाण ख़ुद देश के प्रधानमंत्री भी दे चुके हैं। स्वास्थ्य मंत्री के रूप में रघु शर्मा ने भी प्रदेश की जनता के लिए अच्छा काम किया है। कमियां या खामियां तो व्यवस्था का हिस्सा है। इसमें सुधार करते रहना पड़ता है। जयपुर के ही मेरे एक पत्रकार मित्र बाबूलाल बताते हैं कि स्वास्थ्य मंत्री ने जयपुर स्थित जिस कोविड डेडिकेटेड हॉस्पिटल का निरीक्षण किया, पूरे प्रदेश में उसकी दो तस्वीरें दिखाई जाती हैं। व्यवस्थाओं के जिम्मेदार लोगों की ओर से दिखाई जाने वाली तस्वीर और वास्तविक तस्वीर में फर्क स्पष्ट है। यह व्यवस्था का सच है। कमियां तो हैं ही। उन्हें छिपाया भी जाता है। ये बात ख़ुद मंत्री भी जानते हैं। बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में भर्ती रहे मेरे मित्र जे. पी. व्यास ने बताया कि सरकार भले ही बड़े-बड़े दावे कर लें लेकिन असल में कोविड मरीज़ भगवान भरोसे ही रहता है। उनका इलाज रेजिडेंट डॉक्टर्स के भरोसे ही होता हैं। कोई प्रोफेसर रोगियों की देखभाल करने कितना आता है, ये जानना हो तो रिकार्ड चेक कर लिया जाए। आलम तो यह है कि सीनियर डॉक्टर्स आते ही नहीं। सरकार ने उनको जो किट दे रखी हैं, उस किट की आड़ में वार्ड ब्वॉय या रेजिडेंट ही पहुंचते हैं। गर्म पानी, बाथरूम, शौचालय और वार्ड की सफाई, वार्ड ब्वाय, नर्सिंग स्टाफ की भूमिका सन्तोषजनक नहीं है। डॉक्टर तो कोई बात बोलने पर धमकाते हैं। आह ! कितनी तकलीफदेह बात है कि कोविड मरीज़ जे.पी. व्यास के साथ रेजिडेंट डॉक्टर ने दुर्व्यवहार किया। ज्यादा कहा तो परेशानी की हालत में उनको अस्पताल से छुट्टी दे दी। मजबूरन उन्हें घर पर ही इलाज करवाना पड़ा। ये वो स्याह यथार्थ है, जो ख़ुद जे पी व्यास ने भोगा है। *पिछले सप्ताह भारत सरकार में प्रतिनियुक्ति पर कार्यरत आईएएस सुधीर भार्गव के भांजे की कोविड से पीबीएम अस्पताल में म्रत्यु हो गई। डॉ. बी. जी. भार्गव ने एस. पी. मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई की है, वो पीबीएम में डिप्टी सुपरिटेंडेंट भी रहे हैं. उनका कहना है कि बड़े अफ़सोस की बात है कि डॉक्टर मेडिकल एथिक्स की पालना तक नहीं करते। न तो सीनियर डॉक्टर्स राउंड पर आते हैं और न ही मरीजों को इलाज की जानकारी दी जाती है। कोई इलाज के बारे में पूछता है तो जवाब मिलता है कि कोई इलाज नहीं है। मरीजों को न तो WHO की गाइडलाइन से दवाएं दी जाती है और न ही प्रोपर देखभाल की जाती है। बीकानेर संभाग का पीबीएम अस्पताल खुद बीमार पड़ा है। और तो और यह भी पुख्ता ख़बर है कि बेहतर व्यवस्था के लिए कलक्टर नमित मेहता ने ड्यूटी का जो रोस्टर लागू किया है, निरीक्षण में वो भी पुख्ता नहीं पाया गया। कलक्टर को खुद कोविड अस्पताल में निरीक्षण करने जाना पड़ा। सवाल उठता है कि आखिर क्यों कलक्टर को निरीक्षण करने की जरुरत आन पड़ी? क्यों ये सरकारी अस्पताल इतना बदनाम होता जा रहा है? क्या किसी के पास कोई जवाब है? मंत्री जी ! इन समाचारों का सच आप जानते ही हैं। फिर क्यों देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस राजस्थान की तारीफ़ करते हैं, जनता उसकी व्यवस्था से इतनी परेशां क्यों हैं? क्यों इन दोनों फ्रेम्स में एक तसवीर नहीं है?
बीकानेर में बीजेपी-कांग्रेस के विधायक, सांसद और संगठन से जुड़े नेता अपने चहेतों को पंचायत समिति, जिला परिषद सदस्य, प्रधान और जिला प्रमुख जिताने की जुगत में लगे हैं। साम, दाम, दंड, भेद से चुनाव की रणनीति में जीत हासिल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इसमें आरोप-प्रत्यारोप का खेल तो है ही, साथ में छल-कपट में भी कमी नहीं है। वैसे तो किसी भी नेता के प्रति जनता का ऐसा पक्का विश्वास नहीं है कि किसी नेताओं की साख और अपील पर कोई प्रत्याशी चुनाव जीत सके। इस चुनाव में समीकरण, दुश्मन का दुश्मन दोस्त, आपसी खुन्नस से अपने ही पार्टी प्रत्याशी को हराने में लगे हैं। *केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल के बेटे और खाजूवाला विधायक गोविंद मेघवाल की पत्नी और बेटी की उम्मीदवारी पर सबकी नज़र हैं। हो भी क्यों न? इसके बीकानेर की भावी राजनीति में कई मायने भी हैं। बीकानेर जिले में जिला प्रमुख और प्रधान चुनाव में 5 ग्रामीण विधानसभा क्षेत्रों के बीजेपी और कांग्रेस में किसी नेता की पूरी तरह अपनी ही पार्टी में स्वीकार्यता नहीं है। उच्च शिक्षा मंत्री भँवर सिंह भाटी , देवी सिंह भाटी के साख से नहीं बल्कि प्रत्याशी राजनीतिक समीकरण से चुनावी व्यूह रचना पर काम कर रहे हैं। चाहे रामेश्वर डूडी हो या बिहारी लाल नोखा और पांचू से राजनीतिक प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर काम कर रहे हैं। *भाजपा देहात अध्यक्ष तारा चंद सारस्वत की प्रधान सीट के लिए कोई ठोस वजह सामने नहीं आई है। श्रीडूंगरगढ़ में मंगला राम गोदारा व माकपा विधायक गिरधारी लाल महिया एक दूसरे के लिए चुनौती है। लूणकरणसर में सुमित गोदारा और वीरेंद्र बेनीवाल भी अपने जनाधार को बरकरार रखने की मशक्कत में लगे हैं। खाजूवाला में कांग्रेस विधायक गोविंद मेघवाल सामने भाजपा से डॉ. विश्वनाथ औऱ अर्जुन राम मेघवाल एक हैं। जिले में प्रधान की 9 सीटें भाजपा और कांग्रेस में ग्रामीण क्षेत्रों की राजनीति करने वाले नेताओं के प्रभाव से ज्यादा इलाके में जातीय और पार्टी नेताओं बीच आपसी गुटबाज़ी से बने समीकरण ज्यादा निर्णायक लग रहे हैं। अब देखना यह होगा कि बीकानेर में पंचायत चुनावों के आगे नेता कितने टिक पाते हैं?
बीकानेर। संगठन मायने बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करना. लोकतांत्रिक व्यवस्था में संगठन इसलिए बनाए जाते हैं ताकि सामाजिक, व्यवसायिक, कर्मचारी एवं समूहों के निहित हितों और विशेष उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके. कई संगठन सांस्कृतिक मूल्यों, आध्यात्मिक चेतना, समाज को संस्कारित करने और सकारात्मक दिशा देने का अच्छा काम भी कर रहे हैं। लेकिन मौजूदा सिनेरियो को देखकर लगता है कि कुछ संगठन पथभ्रष्ट हो गए हैं. क्या कई प्रभावशाली लोग इन संगठनों के निहित उद्देश्यों के इतर दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं? क्या इन संगठनों का मंच, सरकार और समाज में हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है ? आप अपने इर्द-गिर्द नज़रें दौड़ाएंगे तो कुछ ऐसा ही महसूस करेंगे. *कहने में गुरेज नहीं है कि आजकल कई संगठनों के मंच का इस्तेमाल उद्देश्यों के इतर होने लगा है. कहीं इनकी आड़ में सफेदपोश साफ-सुथरे बने घूमते फिरते हैं तो कहीं 'व्हाइट कॉलर क्रिमिनल्स' अपराधों से बचने के लिए इनका इस्तेमाल करने लगे हैं. कहीं स्वार्थी लोग इनके जरिये अपने हितों को साध रहे हैं तो कहीं इनके मंचों का खुला राजनीतिक इस्तेमाल होने लगा है. इसी तरह उद्योग और व्यापारिक संगठन मूल काम कम और दूसरे काम ज्यादा करते दिखाई दे रहे हैं. कई खेल संगठन, कर्मचारी संगठन के नेता इस मंच से अपने व्यक्तिगत हित ज्यादा साध रहे हैं. कई संगठनों के नेता अपराधियों को बचाने, काला बाजारी, भ्रष्टाचार औऱ अनैतिक कामों को आश्रय देते हैं. भ्रष्टाचार फैलाने के आरोप कुछ नेताओं और नौकरशाहों पर लगते रहे हैं. कई सामाजिक, व्यापारिक, कर्मचारी संगठन के नेता भी इसमें पीछे नहीं है. इन संगठनों की आड़ में कई प्रभावशाली लोग सत्ता से नाजायज फायदा ही नहीं उठाते, बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर अफसरशाही और नेताओं को हांकते भी हैं. *संगठन की आड़ में मंच, माला, साफा और स्मृति चिन्ह को हथियार बनाया जाता है. चापलूसी के साथ तारीफ के पुल नेताओं और अफसरों को घेरे में रखने के लिए काफी है. इससे भी आगे सब करने को तैयार हैं. ऐसे संगठन सटोरियों, दलालों और भू माफियों से पोषित हैं। बहरहाल, कई संगठन दिव्यांग और धूमाताओं की सेवा करने वाले भी हैं और कई प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र जैसों को गर्त में डालने वाले भी. बीकानेर की जनता बहुत भोली है, लेकिन वो मौन रहकर सबकुछ जानती-भांपती है. उसे एक उद्योग संघ द्वारा संयुक्त आयकर अधिकारी की तारीफ में एक समाचार पत्र में लिखा लेख बिल्कुल नहीं सुहाता, जिसमें वो अधिकारी की तारीफ में कसीदे पढ़ते नहीं थकते. उन्हें "कर्ममूर्ति, संकल्पित, निष्ठावान, दृढ़ निश्चय, सतत सक्रिय अधिकारी" और न जाने क्या-क्या कह देते हैं. हो सकता है कि यह अधिकारी इन गुणों के धनी हों लेकिन यह प्रमाण देने के लिए इस संघ के पास कौनसा नियामक बना हैं? कोई ये क्यों नहीं समझता कि "ये पब्लिक है, सब जानती है". संगठन को असल में वो करना चाहिए, जिनके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वो बने हैं. *समाज और व्यवस्था के अपने नैतिक मूल्य होते हैं, इन मूल्यों पर कुठाराघात नहीं किया जाना चाहिए. सत्ता के इर्द-गिर्द औऱ प्रशासन के आसपास यह कॉकस हमेशा सक्रिय रहता है जो संगठनों के मंच की आड़ में समाज और राष्ट्र को घुन की तरह व्यवस्था को खोखला करता रहता है। व्यवस्था उनका इंस्ट्रूमेंट बनती रहती है. ये उस संगठन और जनता दोनों के लिए ठीक नहीं है. सवाल यह उठता है कि ऐसा होने से उस संगठन की साख का क्या होता होगा? उस संगठन के सदस्य पर क्या बीतती होगी? उन्हें कितनी तकलीफ होती होगी कि उसका संगठन मूल उद्देश्यों से भटक गया है. और आख़िर में उस समाज पर इसका कितना असर होता होगा? तनिक सोचिएगा कि बदलाव की ज़रुरत है या नहीं?
बीकानेर में राह चलते व्यक्ति से अगर आप पूछेंगे कि "प्रिंस बिजय सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल कहां पर है"? तो काफी हद तक मुमकिन है कि वो कह दे कि "म्हें तो नाम ही पहली बार सुणयो है, ओ कठे है?" फिर आप पूछें कि "पीबीएम हॉस्पिटल कहां है?" तो वो हंसते हुए कहेगा कि "ओ तो अंबेडकर सर्किल माथे है." जैसी उलझन पीबीएम अस्पताल के नाम को लेकर होती है, ठीक वैसी ही उलझन पीबीएम अस्पताल की व्यवस्था को लेकर है. अव्यवस्थाएं दिखती सबको हैं, मगर सब अनजान हैं. *संभाग का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल पीबीएम ख़ुद बीमार पड़ा है. व्यवस्थाएं स्ट्रक्चर पर बेसुध पड़ी हैं. क्या डॉक्टर, क्या नर्सिंग स्टाफ और क्या ही सफाई कर्मचारी? सब पर सवाल पर सवाल उठ रहे हैं. किसी की हड्डी भी फैक्चर हो जाए तो महीनेभर तक इलाज मयस्सर नहीं होता, कोई डॉक्टर से मिलने जाए तो चक्कर पर चक्कर काटने पड़ जाए. कौन नहीं जानता कि पीबीएम में दलाल, गिरोहबंदी सक्रिय होने को लेकर कई बार बवाल मचा है. रही-सही कसर इस कोरोना काल ने पूरी कर दी. बैड की मारामारी, ऑक्सीजन की किल्लत.. उफ्फ ! कोई क्या ही करे? मतलब साफ है कि व्यवस्थाओं में खामियां हैं और इन्हीं खामियों का खामियाजा प्रशासन और सरकार को भुगतना पड़ता है. *इसी डर के चलते ज़िला कलक्टर को देर रात औचक निरीक्षण करना पड़ता है। नदारद नर्सिंग और सफाईकर्मियों के खिलाफ एक्शन लेने के निर्देश देने पड़ते हैं. लापरवाही पर जवाबदेही, डॉक्टर्स को टीम स्प्रिट और समन्वय से काम करने, ऑक्सीजन की समुचित व्यवस्था, मरीजों की भर्ती, जांच में गंभीरता के बर्ताव की बात कलक्टर को बतौर निर्देश कहनी पड़ रही है. आह ! कैसी विडंबना है यह? जो काम अस्पताल प्रशासन को करना चाहिए, क्यों उसकी चिंता कलक्टर को करनी पड़ रही है? *सवाल उठता है कि आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों मोटी तनख्वाह लेने वाले कार्मिक अपना काम ढंग से नहीं करते? सब संसाधनों के बावजूद भी क्यों शिकायतों का ढेर लग जाता है? पीबीएम की व्यवस्थाओं में जबरदस्त कॉकस बना हुआ है। इसमें स्थानीय राजनीति, चिकित्सा व्यवसाय में दलाल और डॉक्टर का मिलाजुला कॉकस काम करता है। पिछली सरकार को पीबीएम अस्पताल की विसंगतियों की रिपोर्ट दी गई थी। इस रिपोर्ट को फिर से समझने की जरूरत है। अरे ! लापरवाही का आलम तो यह है कि जिन वरिष्ठ डॉक्टरों को टीम स्प्रिट और समन्वय से काम करने की सलाह दी जाती है, वो ख़ुद आउट डोर में बैठते ही नहीं. ये बात ख़ुद कलक्टर भी जानते होंगे। और अगर नहीं जानते तो उन्हें यह जानने की जरुरत है। *ऐसा नहीं है कि पूरा अस्पताल ही लापरवाह है. कई डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ व सफाईकर्मी बेशक निष्ठा से काम कर रहे हैं। वे मानवता और अपने दायित्वों को मानते हैं। जनता में उनके प्रति गहरी श्रद्धा भी है, लेकिन वो कहते हैं ना कि कुछ मछलियां सारे तालाब को गंदा कर देती हैं. बस ! वहीं पर काम करने की जरूरत है. अस्पताल को भी अपनी नीयत बदलने की जरूरत है. डॉक्टरों, नर्सिंग स्टाफ और पीबीएम में काम कर रहे सभी स्तर के कॉकस की नीयत बदलने की ज़रूरत है। और ऐसा सरकार द्वारा कठोर निर्णय लेने से ही यह संभव है। *अगर ऐसा हो गया तो जरूर जब अगली बार कोई पूछेगा कि "प्रिंस बिजय सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल" कौनसा है? तो राह चलता कोई व्यक्ति फक्र से मुस्कुराकर कहेगा- "ये है ना हमारा पीबीएम अस्पताल". इसलिए हे सरकार ! पीबीएम की नीयत बदलिए, अधीक्षक नहीं. क्योंकि अधीक्षक तो फकत नाम है और नाम में क्या रखा है? बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि "नीयत साफ हो तो नियति भी साथ होती है".
"ऊंट, मिठाई, अस्तरी, सोनो गहनों शाह । पांच चीज पिरथी सिरे, वाह ! बीकाणा वाह ! मायने यह कि ऊंट, मिठाइयां, स्त्रियां, स्वर्ण के आभूषण और धनी-मानी सेठ-साहूकार- ये 5 चीजें पूरी पृथ्वी पर कहीं सर्वश्रेष्ठ हैं, तो वो है बीकानेर। लेकिन ठेठ बीकानेरी इन चीजों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं रखता। उसका मन तो 'तरी' में रमता है। 'तरी' यानी ठेठ बीकानेरी जुबां में कहें तो बेफिक्री में रमा एक अद्भुत आनंद। लेकिन अफसोस ! आज यही बेफिक्री बीकानेर वालों पर भारी पड़ रही है। फिलवक़्त बीकानेर, राजस्थान में सबसे ज़्यादा कोरोना संक्रमितों शहरों में से एक है। छोटे से इस शहर में अब तक 26 हज़ार से ज़्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं। पीबीएम अस्पताल में अब तक क़रीब 5 हज़ार लोग भर्ती हो चुके हैं। अब तक 350 से ज़्यादा लोगों को कोरोना ने ग्रास बना लिया है। ये सिलसिला मुसलसल चलता ही जा रहा है और कोरोना की चेन बढ़ती जा रही है। *30 सैकंड के लिए अपने दिल पर हाथ रखिए और ईमानदारी के साथ ख़ुद से पूछिए कि कोरोना को रोकने के लिए आपने क्या किया? क्या आपने ढंग से सरकारी गाइडलाइन्स को फॉलो किया? क्या आपने मास्क और सेनेटाइजर का बख़ूबी इस्तेमाल किया? क्या आपने ढंग से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया? अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनिए, आपको ख़ुद-ब-ख़ुद जवाब मिल जाएगा। *याद रखिए, कोरोना से बचाने का तिलिस्म किसी के पास नहीं है। न तो शासन बचा सकता है और न ही प्रशासन। वो तो फ़कत तमाम व्यवस्था कर सकते हैं, आगाह कर सकते हैं। अरे ! शासन-प्रशासन तो छोड़िए, फिलहाल तो किसी के पास भी इस मर्ज़ का इलाज नहीं है। अगर किसी के पास है, तो वो है- आप स्वयं। जी हां, आपके जीवन की डोर तो ख़ुद आप ही के पास है। आप ही इसके स्वामी हैं और इसकी रक्षा करना आपकी जिम्मेदारी। किसी के भरोसे मत रहिए। कुछ वक़्त के लिए 'तरी, तफरी और ये बेफिक्री' भूल जाइये। *यह सच है कि ज़िला कलेक्टर नमित मेहता ने बीकानेर की आवाम को कोरोना से बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी कोशिशों को देखकर लगता है कि वे जिम्मेदारी से कोरोनो प्रबन्धन के काम में जुटे हैं। पीबीएम कोविड सेंटर में व्यवस्था सुधारने के उनके प्रयास सतत रूप से जारी हैं। वे जनता को आगाह कर रहे हैं कि त्योहार और सर्दी में कोरोना से बचाव में ज़्यादा सतर्कता की ज़रुरत हैं। एडवाइजरी की पालना के लिए एरिया मजिस्ट्रेट लगाए हैं। सभी विभागों को समन्वय से कोरोना प्रबन्धन के निर्देश हैं। इसके बावजूद भी अगर कोई कोरोना पॉजिटिव होता है तो किसका दोष है? जैन मुनि आचार्य श्री तुलसी कहा करते थे कि "निज पर शासन, फिर अनुशासन।" इसलिए अपने दिल से यह सवाल जरूर पूछियेगा। और हां, अगर मेरी बात से सहमत हैं तो इस लेख को दूसरे लोगों को भी शेयर ज़रूर कीजिएगा।
बीकानेर। पंचायती राज चुनावों का बिगुल बज चुका है। जिला परिषद व पंचायत समिति चुनाव में केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल के बेटे रवि शेखर को बीजेपी की ओर से प्रत्याशी बनाया गया है। रवि के प्रत्याशी बनने के साथ ही चर्चाओं का बाज़ार गर्म हो गया है। चर्चाएं ये कि "मंत्री जी ने यह क्या कर दिया? बेटे को जिला परिषद में प्रत्याशी बनाकर उन्होंने ख़ुद की राजनीतिक साख दांव पर लगा डाली." अब सवाल यह उठता है कि भला वो कैसे? तो इसका जवाब इन बिंदुओं से समझने की कोशिश करते हैं- पहला- मंत्री ने अपने बेटे को ज़िला परिषद की टिकट क्यों दिलाई? *भले ही यह एससी के लिए आरक्षित सीट हो लेकिन मंत्री मेघवाल के बेटे रविशेखर को इस सीट से प्रत्याशी बनाना कई लोगों को सुहा नहीं रहा। वो पूछ रहे हैं कि क्या यह राजनीति में भाई-भतीजावाद की पराकाष्ठा नहीं है? कुछ का तर्क है कि केन्द्रीय मंत्री अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने के लिए बेटे को स्थापित करने की जुगत में जुटे हैं. लोगों का क्या, उनका तो काम ही है कहना ! वो तो लगातार पूछे जा रहे हैं कि मेघवाल ने अपने बेटे को ही जिला परिषद की टिकट क्यों दिलाई? सवाल जितना तल्ख है, उतना ही मेघवाल की साख पर सवाल भी उठाता है। दूसरा- मेघवाल मतदाताओं को अपने पक्ष में कैसे करेंगे? *जिला परिषद सदस्य चुने जाने की डगर थोड़ी कठिन है। इसके लिए गोविंद चौहान और डॉ विश्वनाथ से सबका पाला पड़ना हैं। इससे निकलना आसान नहीं है। आगे की डगर तो और कंटकाकीर्ण है। वैसे केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल जनता के बीच से उठे व्यक्ति हैं। वे आमजन की पीड़ाओं को भुगतकर आगे बढ़े हैं। व्यवहार की शालीनता, जनहित के मुद्दों के प्रति सजगता उनके व्यवहार का हिस्सा है। समन्वय ओर व्यवहार कुशलता उनकी विशेषता है। केंद्रीय मंत्री के रुप में वे उचित भूमिका निभा रहे हैं। पार्टी में उनकी अपनी पैठ है। लेकिन अफसोस ! इतना सब होने के बावजूद वे धरातल पर अपनी राजनीतिक पैठ नहीं बना पाए है। उनकी राजनीतिक पैठ का अगर किसी ने जमकर फायदा उठाया है तो उनकी पार्टी से जुड़े नज़दीकी लोगों ने, जो उनके मार्फत खुद को स्थापित करने में जुटे हुए हैं। ऐसे में सोचने वाली मेघवाल मतदाताओं को अपने पक्ष में कैसे करेंगे? तीसरा- आभामंडल कितना काम आएगा? *भाजपा में मंत्री के लिए मैदान खुला पड़ा है कोई गोलची या प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, ऐसे में वो चाहें, जितने गोल कर सकते हैं। बस ! जरूरत एक परफेक्ट 'किक' की है। और वो किक है- जनता से जुड़ाव की। पंचायत राज चुनाव धरातल की राजनीति का खेल है और धरातल की राजनीति, कोरे आभा मण्डल से वास्ता नहीं रखती। यहां काम आता है तो जनता से वो जुड़ाव, जो उन्हें ज़मीनी नेता होने का दर्जा दिलाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि मेघवाल का अपना आभामंडल उनके बेटे के लिए कितना फायदेमंद होगा या फिर "बापू ! सेहत के लिए हानिकारक है?" *कुल मिलाकर रवि शेखर को प्रत्याशी बनाया जाना अर्जुनराम मेघवाल की साख का लिटमस टेस्ट बताया जा रहा है। देखते हैं इस टेस्ट से अर्जुनराम की साख बनेगी या बट्टा लगेगा? वहीं दूसरे बड़े नेता की बात करें तो कई अब राजनीति की बजाय वैद्य की भूमिका या लोकतंत्र में विसंगतियां बताकर वाहवाही लूट रहे हैं। जनता की सुनने वाले कौन हैं ? माणिक चंद सुराणा, देवी सिंह भाटी अब जनता को उपलब्ध नहीं है। बाकी कई तो अपनी डफली, अपना राग अलाप रहे हैं। सभी नेता अपने अपने प्रधान जिताने की जुगत में हैं। भाजपा में नोखा विधायक बिहारी लाल विश्नोई की भूमिका पार्टी में उभरते नेता के रूप में है। सुमित गोदारा अपने क्षेत्र में ही राजनीति कर रहे हैं। देहात अध्यक्ष तारा चंद सारस्वत अपना कोई राजनीतिक असर नहीं दिखा पा रहे हैं। ऐसे में पंचायत चुनाव के बाद बीजेपी में नए ध्रुव बनने है, जो नई दिशा तय करेंगे।
बीकानेर । राजस्थान में कांग्रेस सरकार का कमोबेश आधा दौर गुजर गया है। अभी हो रहे पंचायत चुनावों से, ख़ास तौर पर प्रधान चुनाव से विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों के नेताओं की राजनीतिक पैठ का आकलन हो सकेगा। *सबसे पहले बात करते हैं बज्जू और श्रीकोलायत विधानसभा क्षेत्र की। इसमें राजस्थान सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री भँवर सिंह भाटी की अपने विधानसभा क्षेत्र तथा सरकार में प्रभाव का पता चल सकेगा। मंत्री के विधानसभा क्षेत्र में बज्जू औऱ श्रीकोलायत दो पंचायत समितियां है। जो देवी सिंह भाटी का भी राजनीतिक क्षेत्र है। देवी सिंह भाटी ने अपनी राजनीतिक पीठ को फिर से कायम करने के लिए सारे प्रोटोकॉल तोड़कर भाजपा से अपने प्रधान बनाने के लिए दमखम के साथ मैदान में उतर गए हैं। वहीं कांग्रेस में जिले की राजनीति में प्रभावी दखल रखने वाले रामेश्वर डूडी के विधानसभा क्षेत्र नोखा में दो पंचायत समितियां नोखा और पांचू से उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा पर इस बार आंच आ सकती है। क्योंकि वहां भाजपा विधायक बिहारी लाल विश्नोई अपनी साख जमाने में जुटे हैं। *भाजपा के देहात अध्यक्ष और श्रीडूंगरगढ़ से विधानसभा से भाजपा की टिकट से चुनाव हारे ताराचंद सारस्वत प्रधान की सीट निकाल पाएं, यह उनके लिए तारे तोड़ने जैसा है। वहीं मंगला राम गोदारा के सामने भी गिरधारी लाल महिया एक मजबूत चुनौती बने हुए हैं। लूणकरणसर में सुमित गोदारा और वीरेंद्र बेनीवाल प्रधान का पद अपने पक्ष में लाने की जुगत में है। खाजूवाला में गोविंद मेघवाल से प्रधान की सीटें छीनने के लिए डॉ. विश्वनाथ और अर्जुन राम मेघवाल एक हो गए हैं। जिले में प्रधान की 9 सीटें भाजपा और कांग्रेस में ग्रामीण क्षेत्रों की राजनीति करने वाले नेताओं का भविष्य तय करेगी। देखना है कौन क्या कर पाता है ?
हेम शर्मा। ख़बर अपडेट, बीकानेर। बीकानेर में ज़िला प्रशासन मिलावटख़ोरी के खिलाफ 'शुद्ध के लिए युद्ध' अभियान चला रहा है। इसी सिलसिल में 2 दिन पहले 'विमर्श' में लिखा था कि "हर दूसरे चौराहे पर मिलावटख़ोरी मिल जाएगी, आप कितनों को 51000 रुपये ईनाम देंगे?" इसके 1 रोज़ बाद ही शहर के एक मुख्य चौराहे के पास एक बड़ी दुकान पर स्वास्थ्य विभाग की कार्रवाई हुई। केईएम रोड स्थित 'बीकानेर नमकीन भंडार' पर कार्रवाई का वीडियो आप तक भी पहुंचा होगा। यूं तो विभाग द्वारा कई दुकानों पर कार्रवाई की गई लेकिन जिस कार्रवाई का वीडियो वायरल हुआ, वो कई सवाल खड़े करता है। तफसील ये पढ़ेंगे तो आप जान पाएंगे कि मिलावटखोरी के तार कहां-कहां तक जुड़े हैं और 'शुद्ध के लिए युद्ध' अभियान से लोगों को क्या-क्या उम्मीदें हैं? *एक रोज़ पहले जब स्वास्थ्य विभाग की टीम केईएम रोड स्थित 'बीकानेर नमकीन भंडार' पहुंची तो सीएमएचओ डॉ. बी. एल. मीणा ने देखा कि वहां न तो मिठाइयों पर रेट लिखी गई है और न ही सही मायनों में सरकार के दिशा-निर्देशों की पालना हो रही है। इस पर जब डॉ. मीणा ने दुकान संचालक से सवाल किए तो संचालक का पारा गर्म हो गया । पहले तो संचालक ने ऊंची आवाज़ में सीएमएचओ को धमकाने की कोशिश की, फिर भी बात नहीं बनी तो एक बड़े नेता से फोन पर बात करवाने की धमकी दे डाली। जिसके बाद सीएमएचओ भी नाराज़ हो गए। उन्होंने संचालक को मोहलत देते हुए कहा कि "15 मिनट के अंदर राज्य सरकार के दिशा-निर्देशों की पालना हो जानी चाहिए नहीं तो सीज़ की कार्रवाई की जाएगी." जिसके बाद संचालक को हाथ जोड़ते देखा गया। बाद में मीणा द्वारा मिठाइयों और नमकीन के सैंपल लैब भेजकर जांच करवाने की बात कही गई। *खैर, इस मामले में आगे जो होगा, सो होगा। लेकिन ये वाकया कई सवाल छोड़ गया है। सबसे पहला सवाल यह कि आख़िर वो 'बड़ा नेता' कौन है, जिनसे सीएमएचओ को बात करवाने की धमकी दी जा रही थी? आख़िर क्यों ऐसे लोगों को इन 'बड़े नेताओं' की छत्रछाया मिलती है? और अगर मिलती है तो क्या यह मान लिया जाए कि मिलावटख़ोरी के तार सीधे तौर पर 'बड़े नेताओं'से जुड़े हैं? दूसरा अहम सवाल यह कि "क्या स्वास्थ्य विभाग की यह 'वायरल कार्रवाई' कहीं 'वाहवाही' तक तो सिमट कर नहीं रह जाएगी? और तीसरा सवाल यह कि "क्या 'सरकारी दिशा-निर्देशों की पालना' करवाने का पाठ सिर्फ बड़ी दुकानों को ही पढ़ाया जाएगा या फिर हर दुकान के संचालक को इसके बारे में समझाया जाएगा" बहरहाल, वैसे 'शुद्ध के लिए युद्ध' की यह कवायद अच्छी है लेकिन इस घटना के बाद यह भी याद रखा जाना चाहिए कि 'आग का दरिया है, डूबकर जाना है.' चरैवेति... चरैवेति...
21 January 2021 07:08 PM
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