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मेरी बात : लुक्खा लाड अर घणी खम्मा

कुछ रोज़ पहले.. पीएम मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बंगाली भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया था। इसी के साथ देश में अब कुल 11 शास्त्रीय भाषाएं हो गई हैं। केंद्र का कहना है कि “शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और प्राचीन ग्रंथों का संरक्षण, दस्तावेजीकरण और डिजिटलीकरण होगा।” अच्छी बात है। ..लेकिन केंद्र को ऐसा राजस्थानी भाषा के संदर्भ में क्यों नहीं लगता? क्यों राजस्थानी भाषा को शास्त्रीय भाषा का दर्जा भी नहीं दिया गया?

मेरा मानना है कि राजस्थानी भाषा को मान्यता न मिलने की सबसे बड़ी वजह है- राजनीतिक शून्यता। चलिये, इस बात को प्रमाणित करता हूं। देश के उपराष्ट्रपति राजस्थान से हैं। देश के लोकसभा अध्यक्ष भी राजस्थान सूबे के बाशिंदे हैं। देश की संसद में राजस्थान से 25 सांसद हैं। राज्यसभा में भी 10 सदस्य इसी राजस्थान से है। बीकानेर के सांसद मेघवाल तो केंद्रीय संस्कृति ‘मंतरी’ भी रहे हैं। ..लेकिन राजस्थान के इतने सारे राजनेता मिलकर भी केंद्र को राजस्थानी का महत्व तक न समझा सके, शास्त्रीय भाषा तक का दर्जा न दिला सके? इसे राजनीतिक शून्यता नहीं, तो और क्या कहें? मुझे नहीं मालूम कि केंद्र में बैठे हमारे मंतरी-संतरी कैसा महसूस करते होंगे, लेकिन हम राजस्थानियों के लिये यह उपेक्षा अपमानजनक है। वैसे भी, जागै कुण? जागै जोगी क जागै भोगी।

यक़ीन न हो तो राह चलते 10 लोगों से पूछ लीजियेगा कि उन्हें कैसा लगता होगा, जब ‘राज’नेता वोटों के लिये तो अलग-अलग मंचों से राजस्थानी में गीत गाते हैं, मोटी-मोटी बातें करते हैं मगर राजस्थानी की मान्यता के मुद्दे पर बात तक नहीं करना चाहते। मैं दावे के साथ कहता हूं कि 10 में से 8 लोग कहेंगे कि “उनका ये दोगला व्यवहार अच्छा नहीं लगता।” ये तो अपने फायदे के लिये राजस्थानी को इस्तेमाल करना हुआ न? वैसे राजस्थानी भाषा का सबसे ज्यादा फायदा इन्हीं मंचों से ही उठाया जाता है और नुक़सान भी इन्हीं के द्वारा किया जाता है। चुनाव आते-आते फिर राजस्थानी भाषा की मान्यता का पासा चल दिया जाता है। और फिर 5 साल का वक्फा निकल जाता है। न ये मुद्दा कभी ख़त्म होता है, और न ही राजस्थानी भाषा को किसी तरह की कोई मान्यता मिलती है। उनके ऐसे दोगले व्यवहार से नाकै-नाकै धाप्योड़ा मेरा एक भायला एक अखाणे में अपनी बात समेटता है, बोलता है- ‘लुक्खा लाड अर घणी खम्मा।’

2 COMMENTS

  1. नुगरा शब्द शायद इस परिपेक्ष में सटीक बैठता है

  2. सच्चाई बयां की है आपने। वोट लेते के लिए ही उन्हें मातृभाषा राजस्थानी याद रहती है। भाषण राजस्थानी में, जन संवाद राजस्थानी में और तब तो राजस्थानी लोकगीत और भजन भी गाने याद रहते हैं किंतु चुनावों के बाद राजस्थानी को जैसे ओल्ड एज होम में बैठा देते हैं।
    राजस्थानी को न संवैधानिक मान्यता दी जा रही है, ना दूसरी राजभाषा बनाया जा रहा है और अफसोस कि इतनी समृद्ध भाषा को शास्त्रीय भाषा का मान भी नहीं दे रहे हैं।
    ‘ डबल इंजन ‘ की सरकार है राजस्थान में। डबल इंजन सरकार के सांसद और विधायक मौन हैं, आपने माननीयों को चेताने का काम किया है, करोड़ों राजस्थानियों को जगाने का काम किया है, साधुवाद आपका।

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