Blog मेरी बात

मेरी बात- हम सबके ‘इगो’ ने ‘बीकानेर स्थापना दिवस’ के मायने बदल दिये हैं

चली चली रे पतंग मेरी चली रे..
चली बादलों के पार, हो के डोर पे सवार.
सारी दुनिया ये देख देख जली रे..

1957 में आई फिल्म ‘भाभी’ का ये गीत बीकानेर में अक्षय द्वितीया और अक्षय तृतीया पर ख़ूब बजेगा। नगर स्थापना की ख़ुशी में शहरभर में ख़ूब पतंगें उड़ाई जाएंगी, ख़ुशियां मनाई जाएंगी। बीकानेर में ये परंपरा 537 बरस पुरानी है। साल 1545 में वैशाख महीने में शुक्ल पक्ष की बीज (द्वितीया) को शनिवार के दिन (थावर) राव बीकाजी ने बीकानेर की स्थापना की थी। जिसके बाद से ये दोहा प्रचलित हो गया-

पंद्रह सौ पैंताळवे, सुद बैसाख सुमेर।
थावर बीज थरपियो बीके बीकानेर।


तब राव बीका ने बीकाजी टेकरी से चंदा उड़ाया था ताकि शहर की सीमाओं के सीमांकन के साथ अन्य राज्यों में नगर स्थापना का संदेश दिया जा सके। तब से ये परंपरा आज तक कायम है। …लेकिन समय बदला तो सब बदलने लगा। बीकानेर टेकरी से उड़ा ‘चंदा’ घर-घर की छतों तक ‘पतंग’ बनकर पहुंचने लगा। अच्छी बात है, ख़़ुशियां मनाई ही जाना चाहिये। लेकिन..जब बाज़ार ने इस उत्सव में ‘व्यापार’ ढूंढ़ना शुरु किया तो ख़ुशियों पर ख़तरों का अतिक्रमण होने लगा। हद तो तब हो गई, जब ‘चाइनीज़ मांझा’ रोड-रास्तों पर ख़ौफ़ बनकर मंडराने लगा। इस ‘चाइनीज मांझे’ की वजह से पूरा बीकानेर.. स्थापना दिवस के क़रीब 15 दिन पहले से लेकर 5 दिन बाद तक खौफ़़ज़दा रखता है। प्रतिबंधित होने के बावजूद चाइनीज मांझा खुदरा विक्रेताओं को साधारण मांझे से आधी क़ीमत में मिल जाता है। इसका एक किलो का पैकेट क़रीब 350-400 रुपये में मिलता है, जबकि साधारण मांझे का आधा किलो का पैकेट 500-550 रुपये तक में बिक रहा है। कांच के किरचों से बना ये चाइनीज़ मांझा काटने से नहीं कटता और तोड़ने से नहीं टूटता। नतीजतन.. इंसान पशु-पक्षी इससे दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। कई-कई बार तो हादसा इतना बड़ा हो जाता है कि उनकी मौत भी हो जाती है। शर्मनाक बात है कि ज़िला प्रशासन इस पर पूरी तरह से रोक लगा पाने और कार्रवाई करने में असफल रहा है।

ताज़ा उदाहरण 24 अप्रैल की दोपहर 3 बजे का है। तब किसी भी हादसे से बेख़बर भीनासर निवासी जसकरण पंचारिया उदयरामसर बाईपास (नवेली फांटा) पर अपनी बाइक से जा रहे थे। चलती बाइक पर चाइनीज़ मांझे से उनका चेहरा इतनी बुरी तरह कटा कि उन्हें फौरन पीबीएम अस्पताल ले जाना पड़ा। ख़ून से लथपथ, घायल जसकरण को देखकर डॉक्टर तक सहम गये। उनके चेहरे पर क़रीब 25 टांके आए। इस हादसे की तसवीरें इतनी डरावनी हैं कि यहां चस्पा नहीं की जा सकती। क़रीब 10 दिन बाद जब वे बोलने की स्थिति में आए, तो ख़बर अपडेट से उनकी बातचीत हुई। घटना का जिक्र करते वक़्त उनका चेहरा उतर गया, बोले-
“ये तो एक वाकया था। हर रोज़ ही न जाने कितने लोग चाइनीज मांझे का शिकार होते होंगे लेकिन इस चाइनीज मांझे को लेकर कार्रवाई नहीं होती।”

फिर वे थोड़े ग़ुस्से में दिखे, बोले “चाइनीज मांझे की बिक्री पर रोक को लेकर पुलिस-जिला प्रशासन की नाकामी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। आख़िर क्यों वे चाइनीज़ मांझे की रोकथाम में नाकाम है? उनकी ये नाकामयाबी किसी की जान ले सकती है। अगर वे नाकाम हैं तो फिर ज़िला प्रशासन और यहां के एमएलए-एमपी किस काम के?”

जसकरण पंचारिया की तकलीफ और चेहरे के भाव हम पढ़ पा रहे थे लेकिन उनके सवालों के जवाब तो हमारे पास भी नहीं थे। हां, जिनके पास जवाब होने चाहिये, उन्हें तो शायद मालूम भी नहीं होगा कि जसकरण कौन हैं? उन्हें राहत भी है कि नहीं? कार्रवाई की भी गई कि नहीं?

ये तो एक जसकरण थे, जो सामने आ गए। न जाने ऐसी कितनी ‘जस’गाथाएं गाई जाती होंगी? इंसान तो फिर भी कह देता है, बेजुबान पंछियों के बारे में क्या कोई सोचता होगा? वैसे भी, जहां इंसानों की भी सुनवाई नहीं होती तो बेजुबानों को भला कौन ही पूछता होगा? फकत चंदा उड़ाकर ‘सफल प्रशासन’ थोड़े ही कहलाया जा सकता है। बहरहाल, इन हादसों के लिये जितना ज़िला प्रशासन जिम्मेदार है, उतने ही जिम्मेदार दुकानदार, ख़रीददार और हम सब भी हैं। क्योंकि हम सब के ‘इगो’ इतने बड़े हो गये हैं कि हम में से कोई भी अपनी ‘पतंग’ कटने नहीं देना चाहता। दुकानदारों के लिये ये पतंग उनकी ‘बिक्री’ हो सकती है, ख़रीददारों के लिये पतंग काटने की ‘आत्मसंतुष्टि’ हो सकती है, प्रशासन के लिये ‘कड़ी कार्रवाई’ हो सकती है। सब अपने-अपने मुताबिक ढील दे रहे हैं। …लेकिन पतंग (बीकानेर स्थापना दिवस मनाना) सब उड़ाना चाहते हैं। ख़ुद से पूछिये- क्या ये ही इस उत्सव को मनाने के मायने हैं? इगो, आत्मसंतुष्टि, बिक्री, ख़रीददारी और लापरवाही…? इस बीच बीकानेर स्थापना दिवस का वो संदेश कहां गया, जो वाकई होना चाहिये था। हक़ीक़त तो यह है कि हम सबके ‘इगो’ ने ‘बीकानेर स्थापना दिवस’ के मायने बदल दिये हैं। जो भी ये आलेख पढ़ रहा हो, वो एक मिनट लेकर ख़ुद से ज़रूर पूछे..

जाते-जाते.. जिस गीत से ‘मेरी बात’ की शुरुआत की थी, ख़त्म भी उसी के आख़िरी मुखड़े से करना चाहूंगा। पहला मुखड़ा तब मौजू था, आख़िरी मुखड़ा अब मौजू है-

छूना मत देख अकेली,
है साथ में डोर सहेली,
है ये बिजली की तार, बड़ी तेज़ है कटार,
देगी काट के रख, दिलजली रे..

आपको ‘बीकानेर स्थापना दिवस’ की बधाई।

LEAVE A RESPONSE

Your email address will not be published. Required fields are marked *