बात करने से बात बनती है,
बात न करने से बातें बनती हैं।
मिरे शहर के लिये कुछ ‘बात’ बने, इसी कवायद में ‘मेरी बात’ में अर्से बाद ढेरों बातें करने का मन है। वैसे भी, चुनावी माहौल है अ’र राजस्थानी में कहते भी हैं कि- “केवोड़ी जचै मौक़े पर।” ..तो आज आ ‘मेरी बात’ ई मौक़े रै माथै। आज बात उस शहर ‘बीकानेर’ की, जहां सत्ता के सिंहासन को लेकर कई ‘राम’ लड़-भिड़ रहे हैं और वो शहर ख़ुद ही ऊपर वाले ‘रामभरोसे’ बैठा है। हां, मैं उसी बीकानेर की बात कर रहा हूं, जिसके बारे में कभी जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी कहा करते थे कि “पूरी दुनिया में दो ही ऐसे शहर हैं, जहां आदमीयत और अपनायत बरकरार है; पहला- बनारस और दूसरा- बीकानेर।” जहां की जनता इतनी भोली है कि अच्छे-बुरे के फेर में उलझना ही नहीं चाहती। नितांत फक्कड़ और मनमौजी मिज़ाज़ वाला अल्हड़ शहर-बीकानेर।
अब ज़रा सियासी जुबां में भी शहर का ‘हाल’ जान लीजिये। वैसे, कौन नहीं जानता कि इसी अल्हड़ बीकानेर के जाये-जन्मे लोग देश-प्रदेश के बड़े मंत्रियों की कुर्सियों पर काबिज हो गये। विधानसभा चुनाव से पहले तो यहां से 4-4 मंत्री थे। फिर चाहे देश के क़ानून मंत्री हो या प्रदेश के शिक्षा मंत्री, चाहे ऊर्जा मंत्री हों या फिर आपदा प्रबंधन मंत्री.. सब बीकानेर से ही तो थे। ये सब बढ़ते गये मगर बीकानेर ठहरा रहा। विडंबना देखिये, 4-4 मंत्रियों के बावजूद बीकानेर उस मुकाम को हासिल नहीं कर सका, जिसका वो हक़दार था। मसलन-
-बीकानेर में 5 राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र, 5 बड़े विश्वविद्यालय, 15 से ज्यादा महाविद्यालय, मेडिकल, एग्रीकल्चर, वेटरनरी और आईटीआई की कॉलेजेज के अलावा सैंकड़ों कोचिंग इंस्टीट्यूट मौजूद हैं, फिर भी इसे ‘एजुकेशन हब’ का दर्जा नहीं मिल पाया है।
-रियासत काल में बीकानेर में कोल आधारित बिजलीघर, पीबीएम अस्पताल, गंगनहर, ऊन उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण, स्थापत्य कला, उस्ता कला जैसे उद्योग स्थापित किए गए. मौजूदा दौर में भी बीकानेर में कई संभावनाएं नज़र आती हैं लेकिन ये हक़ीकत का रूप नहीं धर पा रहीं.
-कोटगेट रेलवे फाटक की समस्या, ड्राई पोर्ट, मेगा फूड पार्क की समस्या जस की तस है।
-बीकानेर को कला, साहित्य और संस्कृति की नगरी भी तो कहा जाता है. यहां पुरातत्व और पर्यटन के क्षेत्र में भी संभावनाएं नज़र आती हैं. यहां की पाटा संस्कृति तो शायद ही दुनिया में कहीं और होगी. लेकिन अफसोस इस बात का है कि कला, साहित्य, संस्कृति, पुरातत्व और पर्यटन के क्षेत्र में इस शहर को वो मुकाम नहीं मिल सका, जो मिलना चाहिये था।
-यह कहने में भी कतई गुरेज नहीं कि संभाग के सबसे बड़े अस्पताल वाले बीकानेर में स्वास्थ्य सेवाएं उतनी बेहतर नहीं है, जितनी होनी चाहिये थीं।
..लेकिन पूछे कौन? कौन फिक्र करे? सब सत्ता पर काबिज होने के लिये रस्साकस्सी कर रहे हैं। बीजेपी से अर्जुन ‘राम’ मेघवाल चुनावी तोल ठोक रहे हैं “हम तीस मारखां”.. तो वहीं कांग्रेस से गोविंद ‘राम’ कह रहे हैं “हम से बढ़कर कोई नहीं”..उधर बीएसपी से खेता ‘राम’ मेघवाल भी दोनों को ललकार रहे हैं. इस तरह उस संसदीय क्षेत्र की सीट को लेकर तीन-तीन ‘राम’ लड़-भिड़ रहे है, जो संसदीय क्षेत्र ख़ुद ऊपर वाले ‘राम’ के भरोसे बैठा है।
खैर, विधानसभा चुनाव हो गये, बीकानेर संसदीय सीट पर लोकसभा चुनाव भी हो गये। इस बार तो शहर के साथ न्याय होना ही चाहिये। राजनेताओं को बीकानेर से खैरियत पूछनी चाहिये। हां.. अगर किसी वजह से उनके पास इतना भी वक़्त न हो तो इसका भी एक रास्ता है। ‘ख़बर अपडेट’ ने क़रीब सालभर पहले ‘बीकानेर का समग्र विकास कैसे हो’ विषय पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी। जिसमें हमने शहर के सभी ज़रुरी मुद्दों को समेटा और उस पर एक्सपर्ट की बाइट्स रिकॉर्ड की हैं। हालांकि निजी ख़र्च पर बनी इस फिल्म को बनाने में हमें महीनों की मेहनत लगी थी, लेकिन इसे देखने के लिये आपको सिर्फ 1 घंटे का ही वक़्त निकालना होगा। हमारे विधायक, सांसद, मंत्रीगण इसे देखकर एक्शन भर ले लें तो भी ये ‘शहर’ विकास के मामले में कई साल आगे का रास्ता तय कर लेगा। आप यहां क्लिक करके इसे देख सकते हैं।
सियासी कुर्सियों की लड़ाई में कोई सा भी ‘राम’ जीते, फर्क नहीं पड़ता। फर्क तो इससे पड़ेगा कि कौनसा ‘राम’ इस पिछड़े बीकानेर में ‘राम राज्य’ ला सकता है।