विमर्श : सरकार और देशवासियो ! लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बचा लीजिये..

नये भारत में लोकतंत्र ‘स्वर्णिम काल’ सरीखा आभास दे रहा है। देश की इकोनॉमी सुदृढ़ हो रही है। भारत सैन्य दृष्टि से विश्व में बड़ी ताक़त बनकर उभर रहा है। हिंदुस्तान.. दुनिया के ताक़तवर देशों के सामने स्वाभिमान से खड़ा हो रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की एक पैठ बन रही है। धर्म, जाति, भाषा, रहन-सहन, खान पान समेत कई तरह की विविधता वाले देश में स्वतंत्र मीडिया भी एक ताक़त रही है। आजादी की लड़ाई से लेकर अब तक की यात्रा में मीडिया ने लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका निभाई है। यही मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में भावी लोकतंत्र की चुनौती बन सकता है। नये भारत में मीडिया बाजार के हाथों का खिलौना बनता जा रहा है। मैनस्ट्रीम मीडिया का डाउनफाल हो रहा है। इस प्रतिस्पर्धा में सोशल मीडिया मैनस्ट्रीम मीडिया को पछाड़ता जा रहा है। हालांकि पत्रकारिता के सम्मान की बात आती है तो मीडिया चौथा स्तम्भ की उपमा पाता रहा है। बदले हालातों में यही चौथा स्तम्भ लोकतंत्र में अपनी भूमिका को लेकर सवालों के घेरे में है। कुल मजमून यह कि पत्रकारिता अपना सम्मान खोती जा रही है।

यह बात सही है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष और निडर मीडिया की नितांत जरुरत है। बदले हालातों में मैनस्ट्रीम मीडिया अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। सरकारी विज्ञापनों पर निर्भरता के चलते उसकी सत्ता के दवाब में काम करने की मजबूरी बढ़ती जा रही है। खोजी पत्रकारिता तो मैनस्ट्रीम मीडिया के लिए एक चुनौती का काम बन चुका है। इस पर सरकारों, कॉर्पोरेट हाउस, पॉलिटिशियन का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। सत्ता और सत्ताधारी नेताओं के कारनामों पर कलम उठाना अब जोखिम भरा काम हो गया है। इसमें पत्रकार को कानूनी दांव-पेच, डर का खेल, दवाब की राजनीति, मानहानि के भय से मीडिया की भूमिका कमज़ोर होती जा रही है।

सवाल उठता है कि.. तो फिर क्या किया जाये? तो जवाब है- मीडिया के साथ खड़े होइये। लोकतंत्र की मजबूती की खातिर केन्द्र और राज्य सरकारों को मीडिया का सहयोगी बनाना ही चाहिए। मजबूत लोकतंत्र में निष्पक्ष और निडर मीडिया को संबल देने की जिम्मेदारी भी सरकारों की ही है। दुर्भाग्य है कि सत्ता और सत्ताधारी नेता मीडिया को कमज़ोर, पिछलग्गू और समर्थक बनाने में लगे रहते हैं। नेता तो चापलूसी करने वाले पत्रकारों को संरक्षण देकर अपने कार्यकर्ता के रूप में इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं करते। मैनस्ट्रीम मीडिया का डाउनफाल होने से सोशल मीडिया के कुछ यूजर्स पहचान बनाने के लिए नेताओं के पिछलग्गू बनकर काम करना मजबूरी मानते हैं। उसमें इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म को कोई जगह नहीं है। ऐसे लोग सत्ता के साथ-साथ चलते हैं। जनहित के मुद्दे, सरकार की कमियां, नेताओं की मनमानी या अनदेखी को दर्शाने वाली पत्रकारिता नहीं की जाती। हां में हां या नेताओं के प्रचार की खबरें चलती हैं। ऐसे में लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया लोकतंत्र की कमजोर नींव बनती जा रही है। सूचनाओं के संप्रेषण और प्रचार में तो तकनीक के चलते व्यापक तीव्रता आती जा रही है, लेकिन मीडिया का मूल धर्म कुंठित होता जा रहा है। ऐसे में जनता और सरकार.. मीडिया के साथ खड़े होकर लोकतंत्र के इस चौथे पाये की गिरती साख को बचा सकते हैं।

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