
पिछले महीने देशनोक ब्रिज हादसे में सैन समाज के 6 लोगों की मौत हो गई थी। ये सभी लोग अपने-अपने परिवारों के मुखिया थे। अब जब मुखिया ही नहीं रहे तो उनके परिवारों पर संकट आना लाजमी है। संकट आया तो शासन-प्रशासन से सहयोग की उम्मीदें की जाने लगीं। परिवारों को मुआवजे और नौकरी की मांग उठने लगीं। लेकिन.. इन परिवारों को न तो सहयोग मिला और न ही संबल। सरकार और प्रशासन का ये संवेदनहीन रवैया जनता को कतई नहीं भाया, जिसकी परीणीति हाल ही विरोध-प्रदर्शन के रूप में उभरकर सामने आई। मृतकों के परिजनों का जिला मुख्यालय पर अनिश्चितकालीन धरना जारी है। परिवारों को 50 लाख मुआवजा और नौकरी की मांग की जा रही है। इस मांग को लेकर बीकानेर, नोखा, कोलायत, देशनोक ओर लूणकरणसर बंद का आवाह्न किया गया था। गोविन्द मेघवाल, महेन्द्र गहलोत चाहे जितना स्पष्टीकरण दे कि यह राजनीतिक मुद्दा नहीं है, लेकिन इसका प्रतिबिम्ब राजनीतिक ही आ रहा है। कुल मिलाकर मामला गर्माया हुआ है।
जबकि होना क्या चाहिये था? राजनेता दावा करते हैं कि उनकी सरकार लोक कल्याणकारी है, और प्रशासन कहता है कि जनता को लेकर वो संवेदनशील है। सत्तारूढ़ नेताओं और अफसरों के व्यवहार में तो ऐसा कतई नहीं दिखाई दिया। अगर ऐसा होता तो केन्द्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल, राजस्थान सरकार के मंत्री सुमित गोदारा और अन्य जनप्रतिनिधि इस घटना को मानवीय दृष्टिकोण से देखते। वे परिवारवालों को संबल और सहयोग देते नज़र आते। लेकिन क्या वे ऐसा करते देखे गये? नहीं.. और जब ऐसा नहीं हुआ, तो जनता की प्रतिक्रिया.. धरना-प्रदर्शन और विभिन्न क्षेत्रों में बंद के रूप सामने आई। ये प्रतिक्रिया उनकी साख पर सवाल बन चुकी है। बंद के दौरान लोगों ने दर्जनों बार कहा होगा कि सरकार और प्रशासन का रवैया असंवेदनशील है। इस बंद को जनता का भरपूर समर्थन मिला।
वैसे, दुर्घटनाओं के मामलों में पहले से ही आर्थिक सहायता के नियम-कायदे बने हैं। बावजूद इसके, ऐसे मामलों में राजनीतिक सहानुभूति और जन दवाब से फैसले होते रहे हैं। जो कि बेहद विडंबनापूर्ण बात है। देशनोक ब्रिज हादसा जनता को झकझोर कर रख देने वाला है। पीड़ितों के परिवार ग़म में डूबा हुआ है और समाज सहमा हुआ है। वहीं, बीकानेर की जनता इस घटना से स्तब्ध है। रही सरकार की बात.. तो उसे तो जनता का माई-बाप कहा जाता है। ऐसे में जरुरत है कि वो पीड़ित परिवार का दु:ख-दर्द साझा करे।
कुल मिलाकर शासन-प्रशासन और समाज तीनों को ही इन परिवारों के लिये आगे आना चाहिये। जनप्रतिनिधियों को पीड़ित परिवार से मिलकर उनके आंसू पोंछने चाहिये और वांछित सहयोग देना चाहिये। प्रशासन को भी उनके साथ संवेदना बरीतनी चाहिये। इसी तरह समाज को भी पीड़ित परिवार का संबल बनना चाहिये। यही तो असली मानवता कहलाएगी। आख़िर जनता से ही तो शासन-प्रशासन है। परिवारों से ही तो समाज है।