मनोहर चावला ने पत्रकारिता धर्म को जीया है। उन्होंने कई कष्ट झेलते हुए ‘लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ’ की महत्ता को निभाया है। मैंने भी पूर्व पीढ़ी के पत्रकारों को पत्रकारिता की नैतिकता को बरकार रखते हुए भूख-प्यास बर्दाश्त करने और अल्प में जीवन बसर करते देखा है। एक पत्रकार के स्वाभिमान के लिये कष्टमय जीवन बिताना स्वीकार किया लेकिन समझौता स्वीकार नहीं किया। न झुके, न रुके। व्यवस्थाओं पर करारा प्रहार करने से नहीं चूके। लेकिन सवाल यह है कि आज की पीढ़ी यह सब कितना समझती है? अव्वल तो समझती भी है कि नहीं? आज की पीढ़ी पत्रकारिता की नैतिक जिम्मेदारी और पत्रकारिता के कर्तव्यों को कितना आत्मसात कर पायी है? इस पर कुछ भी कहना बेजा मुश्किल है। इतने सारे पत्रकार हैं, वे कर क्या रहे हैं? वे पत्रकार क्यों हैं, यह वे खुद ही से पूछ लें।
आप सही कह रहे हैं चावला जी-कि “अब लगने लगा है कि वास्तव में पत्रकारिता जोखिमपूर्ण काम है।” लोग बेकार ही इसे ‘लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ’ कहते हैं, क्योंकि अब पत्रकारिता मिशन नहीं रही। चापलूसी और चाटुकारिता इसके पाये बन गये हैं। सत्य इसका दुश्मन हैं। अगर आपने सच्चाई लिखी तो दुश्मनों की कतारें लग जाएंगी। जीना दुश्वर हो जाएगा। सच कहा हैं गोविंद गोविल ने कि
“आईने की दुकाने बन्द हैं, अब इस शहर में,
सत्ता को आईना दिखाना गुनाह है।”
यक़ीनन कोई पीड़ा तो ज़रूर होगी उस शख़्स को,
जो जाग रहा है रात को भी, दिन में भी सोने वाले इस शहर में।
वास्तव में इस दौर में हवा ऐसी चली है,
अब खामोशी ही भली है, यह सबक़ हमने सीखा है”
आजादी के आन्दोलन में तो पत्रकारिता के योगदान को तो भुलाया ही नहीं जा सकता। पत्रकारिता ने भारतीय लोकतंत्र के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह सच है कि आज पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट आई है। फिर भी आज भी पत्रकारिता की सच लिखने में ताकत कायम है। निष्पक्ष और तथ्यों के साथ सच को उजागर करने से जन मानस, समाज का समर्थन तो मिलता ही है। व्यवस्था को भी समझ तो आती है। लोकतंत्र में पत्रकारिता का क्या स्थान रहा है, 2 दशक पहले के पत्रकारों की भूमिका को पढ़ लो। पत्रकारिता ने सत्ता को चौथे स्तम्भ के अंकुश में रखा। आज के पत्रकार सत्ता के पिछलग्गू होने के आरोपों के घेरे में है।
मनोहर चावला का यह दर्द – ‘’पत्रकारिता सही मायने में दिये और तूफ़ान की लड़ाई है। आप सच लिख सकते हो लेकिन किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते और वो भी आज के नेताओं का, जो गिरगिट से भी ज़ायदा अपने रंग बदलते है।‘’ चावला की पत्रकारिता के जोखिम पर आप बीती दो घटनाएं नई पीढ़ी को पत्रकार के दायित्व और धर्म की ओर इशारा करती है। ज़रा सोचिये, हम लोग क्यों पत्रकारिता कर रहे हैं? क्या पत्रकार के दायित्व को निभा पा रहे हैं या पत्रकारिता की साख पर आंच बने हुए हैं? समाज, लोकतंत्र का भला पत्रकार के नैतिक मूल्यों को अपनाने से ही है। बाकी तो कोयलों की दलाली है जो अन्य क्षेत्र में भी जाकर की जा सकती है। पत्रकारिता तो बदनाम नहीं होगी।