बीकानेर की वो परंपरा, जो पूरे देश के लिये सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बन रही है

कभी बंगाल में मुर्शिदाबाद घटना, तो कभी यूपी में मुज़फ़्फ़रनगर कांड। जिस दौर में आए दिन मीडिया ऐसी ख़बरों से सराबोर रहती है, उसी दौर में बीकानेर की एक ‘परंपरा’ पूरे देश के लिए सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बनती जा रही है। यह परंपरा है- मुस्लिम शायरों द्वारा हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ रामायण का उर्दू पाठ।

क्या ?? ‘मुस्लिम’ शायरों द्वारा ‘हिंदुओं’ के पवित्र ग्रंथ ‘रामायण’ का पाठ? वो भी उर्दू में? जी हां ! बीकानेर में साल 2012 से यह परंपरा निभाई जा रही है। जिसमें दीपावली के मौक़े पर मुस्लिम शायर.. हिंदुओं की जाजम पर बैठकर रामायण का उर्दू पाठ करते हैं। इस दौरान धर्म और मज़हब के फासले मिट जाया करते हैं। आज के दौर में ऐसे आयोजन विरले हैं। इस बार भी 19 अक्टूबर को बीकानेर के होटल मरुधर हैरिटेज में इसका आयोजन किया गया। जिसमें वरिष्ठ शायर जाक़िब अदीब और असद अली ‘असद’ ने रामायण का उर्दू पाठ किया। इस अनूठे पाठ को सुनने के लिये सभी धर्मों के प्रबुद्धजनों ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के तौर पर हाजी मक़सूद अहमद और विशिष्ट अतिथि के तौर पर कवि-कथाकार राजेन्द्र जोशी ने शिरकत की। अध्यक्षता हाफ़िज़ फरमान अली ने की। कार्यक्रम का आयोजन और संचालन डॉ. जिया-उल-हसन क़ादरी ने किया।

आयोजन की ख़ास बात यह कि इसमें शे’र-औ-शायरी के अंदाज़ में रामायण का पाठ किया जाता है। असद अली.. तुलसीदास की रचना पर राणा लखनवी का लिखा कलमा अपनी जुबां में पेश करते हैं-

किस क़दर पुरलुत्फ़ है अंदाज तुलसीदास का,
ये नमूना है गुसाई के लतीफ़ अहसास का। ♫♪
नक्शा रामायण में किस ख़ूबी से खींचा,
रामचंद्रजी के चौदह साल वनवास का।। ♫♪

तिस पर सामने बैठे लोगों की दाद मिलती है- “वाह ! वाह!”

अब सुनिये, राम-कैकेई के प्रसंग को क्या हरफ दिये गये हैं-

ताज़पोशी की ख़ुशी में एक क़यामत हो गई,
कैकेई को रामचंद्रजी से अदावत हो गई। ♫♪
सुबह होते-होते घर-घर इसका चर्चा हो गया,
जिसने भी किस्सा सुना, उसको अचम्भा हो गया। ♫♪

सामने से प्रतिक्रिया आती है- “क्या बात है ! जीयो असद भाई..”

रंजो हसरत की घटा सीता के दिल पर छा गयी,
गोया जूही की कली थी, ओस से मुरझा गयी। ♫♪
देखने को जाहिरा हनुमान जी की चल गयी,
वर्ना सीता की ये आहें थीं कि लंका जल गयी। ♫♪

कोई बोला- “वाह ! कमाल कर दिया।”

अब ज़रा जाक़िर अदीब की जुबानी राम के 14 साल के वनवास की कहानी सुनिये-

कोई भाई लक्ष्मण सा भाई पा सकता नहीं,
हौसला कोई भरत का सा दिखा सकता नहीं।♫♪
कोई सीता की तरह विपदा उठा सकता नहीं,
मर्तबा तो देखिये, सीता के इस्तकलाल का,
सैल था क्या काटना, जंगल में 14 साल का?♫♪

इतना सुनते ही पूरा सदन “वाह-वाह” से गूंज उठा।

इस तरह एक के बाद एक रामायण के सभी प्रसंगों को उर्दू जुबान में सुनाया जाता है। इस आयोजन से जुड़े बीकानेर के डॉ. जिया उल हसन क़ादरी कहते हैं, “यह परंपरा साल 2012 से चली आ रही है। हमें एडवोकेट उपध्यान चंद्र जी कोचर से इसका मार्गदर्शन मिला था। हम सांप्रदायिक सौहार्द की इस परंपरा को और आगे ले जाना चाहते हैं। रामायण का यह उर्दू रूपांतरण रामजी के वनवास, रावण पर विजय और अयोध्या लौटने का जीवंत वर्णन करता है। पूरी उर्दू रामायण को 25 मिनट में पूरा पढ़ा जा सकता है, जिसकी महक पूरे देश तक जाती है।”

असद अली असद का कहना है कि “उर्दू में लिखी रामायण आज ज़्यादा प्रासंगिक है. एक मौलवी ने सालों पहले उर्दू रामायण लिखी और आज भी उसका वाचन.. इस्लाम का कोई अक़ीदतमंद करता है. यह हमारी गंगा-जमुनी तहजीब नहीं तो और क्या है? यह कार्यक्रम हर साल पर्यटन लेखक संघ और महफिल-ए-अदब संयुक्त रूप से किया जाता है। जिसमें 2-3 मुस्लिम शायर रामायण का काव्यात्मक पाठ करते हैं।”

बहरहाल, बीकानेर के इस अनूठे आयोजन की सौंधी ख़ुशबू आहिस्ता-आहिस्ता पूरे देश में फैल रही है। यह परंपरा गंगा-जमुनी तहजीब और मज़हबी सौहार्द की मिसाल के तौर पर पहचानी जाने लगी है। पूरे देश में भाईचारे का सुंदर संदेश पहुंच रहा है। अगर किसी को ‘सर्वधर्म समभाव’ के भावों को क़रीब से महसूस करना हो तो उन्हें इस आयोजन में ज़रूर शरीक होना चाहिये।

उर्दू रामायण परंपरा का इतिहास-

मिली जानकारी के अनुसार- बीकानेर महाराजा गंगासिंह के समय.. साल 1913 से 1919 तक उनके यहां एक उर्दू-फारसी अनुवादक हुये- मौलवी बादशाह हुसैन राणा लखनवी। लखनवी मुग़ल शासकों द्वारा जारी किये आदेशों का फारसी में अनुवाद किया करते थे। साल 1919 में महाराजा गंगासिंह ने उन्हें डूंगर कॉलेज में शिक्षक नियुक्त कर दिया। लखनवी अपने शागिर्द- कश्मीरी पंडित से रामायण की खूब कहानियाँ सुना करते थे। वे रामायण के प्रसंगों से बेहद प्रभावित थे। साल 1935 में गोस्वामी तुलसीदास की जयंती पर बनारस हिंदू विश्विद्यालय में एक प्रतियोगिता रखी गई। उर्दू में रामायण नज्म लिखने की एक अखिल भारतीय प्रतियोगिता आयोजित। तब लखनवी के कश्मीरी शागिर्द ने लखनवी से उर्दू रामायण लिखने की फरमाइश की। जिसके बाद लखनवी ने 9 पेजों की उर्दू रामायण लिखकर बनारस भेजी। इस रामायण में 27 छंद थे और हर छंद में 6-6 पंक्तियाँ थीं। उस प्रतियोगिता में यह उर्दू रामायण पूरे देश में प्रथम आई और बीएचयू ने इसे गोल्ड मैडल से नवाजा गया। फिर महाराजा गंगासिंह ने भी बीकानेर के नागरी भंडार में एक कार्यक्रम रखा था। लखनवी ने जब उर्दू ज़बान में रामायण सुनाई तो ख़ूब वाहवाही हुई। यहीं पर उर्दू के वरिष्ठ साहित्यकार सर तेज बहादुर सप्रू ने विश्वविद्यालय की तरफ से राणा लखनवी को गोल्ड मैडल पेश किया। गंगासिंह ने भी इसे 8वीं के कोर्स में शामिल कर लिया। बाद में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान ने भी इसे 12वीं के पाठ्यक्रम में शामिल किया। राणा लखनवी के बाद कई सालों तक उर्दू रामायण के पाठ का उल्लेख नहीं मिलता। साल 2012 में बीकानेर में यह परंपरा फिर से शुरु होती है। बीकानेर के एडवोकेट स्व. उपध्यान चंद्र कोचर के कहने पर डॉ. जिया-उल-हसन और असद अली यह जिम्मा उठाते हैं। तब से अब तक हर साल दीपावली के मौके पर बीकानेर में रामायण का ख़ास उर्दू पाठ होता है। हर साल दीपावली से ऐन पहले मुस्लिम शायर उर्दू रामायण का पाठ करते हैं और हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब एक जाजम पर बैठकर सुनते हैं।

बहरहाल, उर्दू रामायण पाठ को फ़क़त एक आयोजन का तमग़ा दे देना काफी नहीं होगा, बल्कि इसे पूरे देश के लिये सांप्रदायिक सौहार्द की नज़ीर का नाम दिया जा सकता है। यह आयोजन साबित करता है कि मज़हबी सौहार्द जाति-धर्म की सब सीमाओं से परे है। शायद एक वजह यह भी रही होगी कि बीकानेर में आज तक एक भी सांप्रदायिक घटना नहीं हुई। शायद.. इसीलिये जनसत्ता के पूर्व संपादक स्व. प्रभाष जोशी अक्सर कहते सुने गये कि-

“पूरी दुनिया में दो ही ऐसे शहर हैं, जहां आज भी आदमियत, अपणायत और मज़हबी सौहार्द बरकरार है। पहला शहर है- बनारस और दूसरा है- बीकानेर…”

दीपावली की शुभकामनायें।
-सुमित शर्मा

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