“मैं बिल्कुल ठीक हूं। ज्यादा उम्र के कारण रुटीन चेकअप के लिए अस्पताल गया था। चिंता की कोई बात नहीं है।”
ये वो बयान है, जो रतन टाटा ने 7 अक्टूबर 2024 को सोशल साइट X पर जारी किया था। भारत में ‘टाटा’ को ‘भरोसे का दूसरा नाम’ कहा जाता है। उन्होंने बड़ी शिद्दत से यह ‘पर्यायवाची’ कमाया था, और हमेशा बरकरार रखा था। ..लेकिन क्या टाटा जाते-जाते वो अपना भरोसा तोड़ गये ? आइये, जानते हैं-
कहानी ख़त्म हुई और ऐसी ख़त्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियाँ बजाते हुए..
अपनी शख़्सियत की रोशनी बिखरने वाले रतन टाटा 9 अक्टूबर 2024 को (यानी उपरोक्त पोस्ट के 2 दिन बाद) इस फानी दुनिया से रुखसत हो गये।उनके महाप्रयाण की ख़बर ने सबको सन्न कर दिया था, झारखंड के जमशेदपुर में तो सन्नाटा ही पसर गया। लगा जैसे त्योहार (नवरात्रा) ने ‘शोक’ का रूप धर लिया हो, दुर्गा पंडालों में संगीत ने बजने से मना कर दिया हो। घड़ी की सुइयों ने सरकना बंद कर दिया हो, आंखों से सिर्फ झिरमिर मेह बरस रहा हो, मानो कोई कहानी ख़त्म हो गई हो।
थोड़े संभले तो देश के अलग-अलग हिस्सों से लोगों की भीड़ अपने ‘रतन’ को श्रद्धांजलि देने उमड़ने लगी। बड़ी-बड़ी हस्तियां टाटा के आख़िरी दर्शन के लिये पहुंचने लगी। जेहन में अनगिनत सवाल लिये.. दिलों में दर्द का सैलाब लिये.. आंखों से टपकता पानी लिये.. सिसकियां लिये.. आहें लिये। सवाल उठता है कि 140 करोड़ की आबादी वाले भारत में हर रोज़ न जाने कितने लोग मरते होंगे, फिर टाटा के रुखसत हो जाने पर देश इतना दु:खी क्यों? जानना जरुरी है।
-इसलिये.. क्योंकि रतन टाटा ने ही सिखाया था कि इंसान पैसों से नहीं बल्कि अपने काम से, अपने आचरण से बड़ा होता है। कोई भी इंसान हमेशा छोटा या बड़ा नहीं रहता। उन्होंने कई मौक़ों पर छोटे-बड़े का भेद ख़त्म किया था।
-इसलिये.. क्योंकि टाटा ने ही समझाया था कि किसी शहर के विकास के लिये (जमशेदपुर के संदर्भ में) राजनीतिक जोड़-तोड़ करना ज़रुरी नहीं है, बल्कि सबको साथ लेकर चलने की सोच और नैतिक मूल्य ज़रुरी होते हैं। (आजतक न्यूज़ चैनल को दिये एक इंटरव्यू में कही बात)
-इसलिये.. क्योंकि वो रतन टाटा ही थे, जिन्होंने सिखाया था कि मेहनत इतनी खामोशी से करो कि कामयाबी शोर मचा दे| समय आने पर अपने अपमान का जवाब इतनी शालीनता से दो कि अपमानित करने वाला पश्चाताप में ही मर जाये। (मल्टीनेशनल कंपनी फोर्ड से बदला लेने वाले किस्से के संदर्भ में)
-इसलिये.. क्योंकि वो रतन टाटा ही थे, जो कहते थे कि “व्यक्ति नहीं, देश प्रथम होना चाहिये।” उन्होंने ऐसी कई नज़ीर पेश कीं, जिसमें ख़ुद से पहले देश को प्रथम रखा।
-इसलिये.. क्योंकि वो टाटा ही तो थे, जिन्होंने दुनिया को सिखाया था कि ‘भरोसा’ कैसे कमाया जाता है, बनाया जाता है और कायम रखा जाता है।
यही सब ख़ूबियां रतन टाटा को ‘द रतन टाटा’ बनाती है। शायद इन्हीं के चलते महाराष्ट्र सरकार ने उनके निधन के बाद उनका नाम देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ के लिये प्रस्तावित किया होगा। अब आप ही बताइये, इतनी ख़ूबियों वाले रतन टाटा जाते-जाते भला देश का भरोसा कैसे तोड़ जाते? कभी नहीं। जैसा कि उन्होंने अपनी आख़िरी X पोस्ट में लिखा कि-
“मैं बिल्कुल ठीक हूं। ज्यादा उम्र के कारण रुटीन चेकअप के लिए अस्पताल गया था। चिंता की कोई बात नहीं है।”
उन्होंने जीते-जी तो अपनी इस बात पर भी लोगों का भरोसा बरकरार ही रखा था। ..लेकिन दुनिया से जाने के बाद उनकी यह बात (मैं बिल्कुल ठीक हूं….) कायम नहीं रही तो इसमें उनकी क्या ही ग़लती? जाते-जाते भी वो यह बात साबित करने में कामयाब रहे कि “जैसे ‘आनंद’ नहीं मरते, वैसे टाटा भी कभी ‘भरोसा’ नहीं तोड़ते।”
वो इस बार भी भरोसा न तोड़ते, गर मौत दगा न देती। क्या टाटा जैसा फिर से कोई होगा?
आपने मोहतरम रतन टाटा मरहूम की शख़्सियत का जो ख़ाका खींचा है क़ाबिले- ग़ौर भी है और क़ाबिले- सताइश भी लफ़्ज़ों पर आपको उबूर हासिल है मैं आपकी इस तख़लीक़ात का ऐतराफ़ करता हूँ सुमित भाई
Bahut khubsurat likha aapne
बेहद हृदयस्पर्शी आलेख।
Very nicely portrayed The Ratan Tata, In very less words given everything. Congratulations.
Achcha likha hai
Bohut khoob likha aapne.
प्रोत्साहन बढ़ान के लिये शुक्रिया।
Bohut khoob likha hai aapne