Blog मेरी बात

मेरी बात : पत्रकार भाइयो ! इतना सन्नाटा क्यों पसरा है ?

हाल ही बीकानेर में कवि कुमार विश्वास को बुलाया गया था। ..लेकिन कुमार से ज़्यादा मीडिया को पासेज न देने की चर्चाओं ने सुर्खियां बटोरीं। कुमार तो शो करके चले गये, लेकिन पत्रकारों के लिये पीछे छोड़ गये- विश्वास को न सुन पाने का मलाल। बाद में केवी का वो कार्यक्रम मुद्दा भी बना। वैसे, मुद्दे तो और भी कई बने लेकिन या तो हम सबने ध्यान नहीं धरा, या ध्यान धरकर भी कुछ नहीं लिखा। हां, कुमार वाला मुद्दा ख़ूब गर्माया। बहरहाल, मैं कुमार विश्वास तो नहीं हूँ, लेकिन एक पत्रकार होने के नाते, मेरे पत्रकार बंधुओं के लिये कुछ अशआर और कुछ मुद्दे ज़रूर सुना सकता हूं। बड़ी मेहनत से लाया हूँ, इसलिये साथ दीजिएगा, लुत्फ लीजिएगा। पेश-ए-खिदमत है-

सावन का महीना बीता तो बीकानेर की सड़कें गड्ढों से भर गईं। फिलहाल सड़कें कम, गड्ढे ज्यादा नज़र आ रहे हैं। 11-11 करोड़ की सड़कें कंकड़ बनकर बिखर गई हैं। अजी ! नेता क्या, उनके पिछलग्गू तक सड़कों की ख़राब हालत से परेशां हैं। बेचारे..वे भी हैं तो इंसान ही न? उन्हें भी तो इसी सड़क पर चलना है? तो पत्रकार बंधुओं.. सड़कों की खस्ता हालत पर पेश हैं पहली कविता-

बेहद पतली गली है
उधर कार नहीं जाती
और
चूंकि कार नहीं जाती
इसलिए
उधर कभी सरकार नहीं जाती।

यहां पतली गली का अर्थ टूटी सड़क से है। सच ! ख़राब सड़कों के चलते सरकार का कोई नेता, मंतरी-संतरी तक नहीं जाता। और जाये भी क्यों? जब किसी की ‘छत्रछाया’ और ‘नाम’ से ही काम बनता है, तो गलियों की खाक छानने का क्या ही फायदा? खाक छानें… आप-हम और बीकानेर की भोली-भाली जनता। उनका काम बनता, भाड़ में जाए जनता। इसी अनजाने में तो पीएम मोदी पिछले साल नौरंगदेसर में सावन को बीकानेर के लिये सबसे अच्छा बता गये थे। सावन के महीने का हसीन जिक्र कर बोले कि-

सियाळो खाटू भलो, ऊनाळो अजमेर
नागौर नित रो भलो… सावण बीकानेर।

अब पीएम मोदी को तो जो बताएंगे, वही न बोलेंगे? दिल्ली बैठे मोदी जी को क्या ही मालूम कि सावन के महीने में बीकानेर में आसमान के साथ-साथ जनता भी रोती है। राजस्थानी में कहें तो “अठै सावण..कदी ‘सावळ’ कोनी रेवै, ‘कावळ’ ही रेवै।” एक ढंग की बरसात हो जाए तो पूरा बीकानेर बदनाम होने लगता है। पूरा यूट्यूब बीकानेर के वीडियोज से लबालब हो जाता है। दूसरे राज्यों के यूट्यूबर्स को मिलियन व्यूज वाला कंटेंट मिल जाता है। रोड पर तैरते बेरिकैड्स को देखकर वे ठहाके मारकर बीकानेर का मज़ाक उड़ाते हैं। हमारे आदरणीय नेताओं की खिल्लियां उड़ाते हैं। फिर क्रिएटिव टाइटल्स वाले वीडियो पोस्ट करके लिखते हैं कि- “पहली बारिश में डूब गया बीकानेर”, “बीकानेर की सड़कों पर स्वीमिंग पूल”, “बीकानेर में आई बाढ़” वगैरह-वगैरह। कसम से, तब जी करता है बारिश के उसी पानी में….. । खैर छोड़िये। दिल्ली वाले कई दोस्त तो तंज कसते हुए पूछते हैं- “सुमित भाई ! सब खैरियत तो है न? रानी बाज़ार में आपके ऑफिस के पास बना नया वाला अंडरब्रिज भर तो नहीं गया? देखो तो गाड़ियां तो नहीं तैर रहीं?” मुझको ग़ुस्सा तो बहुत आता है, मगर मैं अपनी ‘वाकपटुता’ से उन्हें यह कहते हुए चुप करवा देता हूं कि “बीकानेर की जनता ने इस पुल के लिये 3 दशकों तक तपस्या की है। इतने धैर्य से मिला ये ब्रिज अइसे-कइसे भर जाएगा? धैर्य का फल बहुत मीठा होता है। सुना नहीं क्या? हम्म्म?” फिर “हैलो..हैलो.. आवाज़ नहीं आ रही” कहते हुए कॉल कट कर देता हूं और हमारे नेताओं की आबरू बचा लेता हूं। सही करता हूं न? बात जंचे तो ताली ठोक देना।

वैसे भाइयो ! सड़क याद आई तो गड्ढे याद आए। गड्ढे याद आए तो बारिश का जिक्र आया। बारिश आई तो ‘नाली का पानी’ याद आया। उफ्फ ! बीकानेर में ‘नाली का पानी’ तो नेशनल मुद्दा बनते-बनते रह गया। पत्रकार भाइयो ! आपको याद है कि आप भी भूला बैठे? चलिये, इसी पर जिला जालंधरी का एक शे’र हो जाए। अच्छा लगे तो आप भी बिना डरे लिख देना एक आर्टिकल।

“हिम्मत है तो बुलंद कर आवाज़ का अलम
चुप रहने से हल नहीं होने का मसअला।”

लो जी ! अब मस’लों की बात आ गई। अपने शहर में इतने मसले हैं कि गिनने लगो तो 100 दिन बीत जाए। ..लेकिन आपके ख़बर अपडेट और सुमित भाई ने कुल 100 दिनों की मेहनत से पूरे बीकानेर के मसलों की फेहरिस्त को 45 मिनट की डॉक्यूमेंट्री में पिरो डाला है। मेरे शहर के विकास का मॉडल तैयार करने के लिये बड़ी मेहनत की थी। इसलिये मोहम्मद अल्वी साहब का ये शेर तो सुनना ही पड़ेगा-

अकेला था किसे आवाज़ देता
उतरती रात से तन्हा लड़ा मैं..

किसी ‘राज’नेता, मंतरी-संतरी को फ्री-फोकट और बगैर मेहनत किये बीकानेर का मेनिफेस्टो चाहिये तो यहां क्लिक करके देख सकते हैं। उन्होंने इन समस्याओं पर 100 दिन भी काम करवा दिया तो जनता सारे गुनाह माफ कर देगी। बाक़ी प्यार भरे बोल तो अभी बोल ही रही है। ..लेकिन सवाल यह है कि उनसे 1 दिन भी काम हो पाएगा क्या? सवाल तगड़ा है, इस दिलतोड़ और तगड़ी शायरी में इसका जवाब छिपा है-

कीचड़ में पैर रखोगे तो धोना ही पड़ेगा और
बेवफा से प्यार- करोगे तो रोना ही पड़ेगा।

वैसे कीचड़ और लीचड़ दोनों से बचकर रहना चाहिये। एक तन खराब करता है, और दूसरा मन। पत्रकार भाइयो ! आप मन ख़राब मत कीजियेगा। मनन कीजियेगा कि बीकानेर में इतने मुद्दे हैं, मगर सब चुप क्यों है? यक़ीन मानिये ये चुप्पियां पत्रकारिता को खा डालेंगी। हमें तो ग़लत बातों पर हामी कतई अच्छी नहीं लगती, इसीलिये लिख देते हैं। आप को भी नहीं लगती होगी, इसलिए लिख डालिये। शायद जावेद अख़्तर ने भी इसीलिये लिखा होगा कि-

ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ायदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता”


जावेद साहब का शे’र अच्छा लगा तो उनकी कविता पर भी गौर फरमाइयेगा। फकत कुमार विश्वास ही अच्छी कविता थोड़े ही करते हैं। जावेद मियां की यह कविता सुनकर पत्रकारिता की असल परिभाषा समझ आ जाएगी। अख़्तर सा’ब लिखते हैं कि-
जो बात कहते डरते हैं सब, तू वह बात लिख
इतनी अंधेरी थी न कभी पहले रात लिख

जिनसे क़सीदे लिखे थे, वह फेंक दे क़लम
फिर खून-ए-दिल से सच्चे क़लम की सिफ़ात लिख

जो रोज़नामों में कहीं पाती नहीं जगह
जो रोज़ हर जगह की है, वह वारदात लिख

जितने भी तंग दायरे हैं सारे तोड़ दे
अब आ खुली फ़िज़ाओं में अब कायनात लिख

जो वाक़ियात हो गए उनका तो ज़िक्र है
लेकिन जो होने चाहिए वह वाक़ियात लिख

इस बाग़ में जो देखनी है तुझ को फिर बहार
तू डाल-डाल से सदा, तू पात-पात लिख

आप भी लिखिये। किसी कवि का शो ही फकत मुद्दा नहीं होता, मुद्दा वो भी होता है, जो दिखता है, मगर हम उसे देखकर भी ख़ामोश रहते हैं। पत्रकारिता के लिये ये ख़ामोशी ख़तरनाक है। बोल के लब आज़ाद हैं तेरे। इस बात पर एक और शे’र बनता है, अच्छा लगे तो मुस्कुराकर समर्थन देना।

अजीब सा शोर मालूम होता है रात के पहर में
इतना सन्नाटा है कि कान फटे जाते हैं.

जाते-जाते जोश की बात सुनते जाइये। अच्छी लगे तो दिल्ली तक पहुंचा देना। यह तार्किक बात पढ़कर आपकी कलम की स्याही उफान मारने लगेगी। यही बात मुनव्वर राणा कहते-कहते रुखसत हो गये थे कि-

बस तू मिरी आवाज़ से आवाज़ मिला दे
फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता?

फिलहाल, मुझे एक ही सवाल बार-बार..हर बार परेशान कर रहा है कि “सबको सब नज़र आ रहा है, फिर इतना सन्नाटा क्यों पसरा है भाई?”

2 COMMENTS

  1. चेतना जागृत करने का इससे उत्तम कुछ नहीं हो सकता. मगर सुमित जी अंधों के शहर में अपने आईने बेचने का जो दुस्साहस अपने किया है, उसे सैलूट…

  2. बहुत अच्छी आयतन की साथ लिखा है बीकानेर का मंजर आप बधाई की पात्र हो

LEAVE A RESPONSE

Your email address will not be published. Required fields are marked *