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ये बात तब की है जब नरेंद्र मोदी देश के पीएम नहीं थे. तारीख- 20 फरवरी 2014..गुजरात के अहमदाबाद में पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की रैली थी. मंच सजा था. लोगों का हुजूम उमड़ा था. मोदी ने हाथ उठाकर जनता का अभिवादन किया और गीतकार प्रसून जोशी की लिखी एक कविता पढ़कर सुनाई. इस कविता के बोल थे- सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं बिकने दूंगा. लेकिन.. जो मोदी सरकार कहा करती थी कि मैं देश नहीं बिकने दूंगा, उसी मोदी सरकार के कार्यकाल में सबसे ज्यादा सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेच दी गई. मोदी ने जब पहली बार "मैं देश नहीं बिकने दूंगा" कहा था. उस साल से यानी 2014 से अब तक मोदी सरकार 121 सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेची चुकी है. इसी कड़ी में अब मोदी सरकार देश की दूसरी सबसे बड़ी फ्यूल रिटेलर कंपनी-भारत पेट्रोलियम यानी BPCL में 53.3% हिस्सेदारी बेचने की तैयारी कर रही है. जिसके बिकने पर सरकार को 40 हजार करोड़ रुपये मिलने का अनुमान है. मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर जितनी रकम जुटाई गई है, उतनी रकम 23 सालों में भी नहीं जुटाई जा सकी. *सरकार द्वारा सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी को बेचने के प्रोसेस को डिस-इन्वेस्टमेंट यानी विनिवेश कहते हैं. जिस तरह इनवेस्टमेंट का मतलब निवेश करना या पैसे लगाना होता है, उसी तरह डिस-इनवेस्टमेंट का मतलब ठीक इसका उल्टा होता है यानी पैसे निकाल लेना होता है. लेकिन सवाल उठता है कि आखिर सरकार डिस-इनवेस्टमेंट करती क्यों है? तो इसके पीछे कई वजहें होती हैं, जैसे- वजह- भारत का राजकोषीय घाटा- भारत का राजकोषीय घाटा लाखों करोड़ रुपए का है. मतलब कमाई कम और ख़र्चा बहुत ज़्यादा. इससे निपटने के लिए सरकार अपनी कंपनियों का डिस-इनवेस्टमेंट करके धन जुटाती है. वजह- सरकारी कंपनियां का लगातार घाटे में चलना- ऐसी कई सरकारी कंपनियां हैं, जिन पर करोड़ों खर्च होने के बाद भी कोई मुनाफा नहीं होता। ऐसी कंपनियों से अपनी हिस्सेदारी या शेयर बेच देती है ताकि सरकार का पैसा न लगे. वजह- देश चलाने के लिए धन की कमी- देश चलाने के लिए सरकार को पैसों की जरुरत होती है. ये पैसे सरकार जनता से टैक्स के तौर पर लेती है. लेकिन उस रक़म से भी सरकार का काम नहीं चल पाता. ऐसे में और सरकार अपनी ही कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर वो रक़म जुटाने लग जाती है. जिसमें सरकार का मालिकाना हक कम हो जाता है. जिसका सीधा नुकसान जनता को होगा क्योंकि सरकार का पैसा यानी हमारा पैसा *डिस-इनवेस्टमेंट से जुड़ा एक सवाल बहुत बार पूछा जाता है कि क्या डिस-इनवेस्टमेंट से हर तरफ प्राइवेटाइजेशन यानी निजीकरण हो जाएगा? इसका जवाब जानने के लिए हमें डिस-इनवेस्टमेंट और प्राइवेटाइजेशन की परिभाषा को समझना जरूरी है. दरअसल ये दोनों ही अलग-अलग चीजें हैं. प्राइवेटाइजेशन में सरकार 51% से ज्यादा हिस्सेदारी किसी निजी कंपनी को बेच सकती है. इसमें सरकार का मालिकाना हक़ खत्म हो जाता है. वहीं डिस-इनवेस्टमेंट में सरकार कुछ ही हिस्सा बेच सकती है. इसमें सरकार का कंपनी पर मालिकाना हक बरकरार रहता है. डिस-इनवेस्टमेंट को लेकर एक और सवाल पूछा जाता है कि क्या डिस-इनवेस्टमेंट से नौकरियां कम हो जाएंगी? तो इसका सीधा सा जवाब है कि अगर डिस-इनवेस्टमेंट में किसी सरकारी कंपनी का कुछ हिस्सा किसी प्राइवेट कंपनी को बेचा जाता है तो इससे कंपनी की मिल्कियत और इसका मैनेजमेंट सरकार के पास ही होता है. ऐसे में स्टाफ को नौकरियों से निकालने या वर्कफोर्स को कम करने की जरुरत नहीं पड़ती. लेकिन अगर सरकार अपनी कंपनी को निजीकरण के अंतर्गत 51 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बेच देती है तो सरकार की मिल्कियत और मैनेजमेंट दोनों खत्म हो जाते हैं. ऐसे में प्राइवेट कंपनियां अपनी जरुरत के हिसाब से नौकरियां घटा-बढ़ा सकती हैं. *लेकिन..लेकिन...लेकिन निजीकरण और विनिवेश अभी ऐसे माहौल में हो रहा है जब देश कोरोना और बेरोज़गारी के बड़े संकट से जूझ रहा है.CMIE यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में भारत में बेरोजगारी की दर तेजी से बढ़ी है. कोरोना वायरस ने भी बेरोजगारी बढ़ाने में अहम रोल प्ले किया है. ऊपर से डिस-इनवेस्टमेंट का ये कठिन दौर भी. जहां जनता कहती है कि नौकरियां दो. और सरकार टारगेट रखती है कि साल 2020-21 के लिए सरकार ने विनिवेश के जरिए 2.10 लाख करोड़ रुपए जुटाने हैं. साल 2014 से 2020 तक सरकार 121 सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेच चुकी है..ये फेहरिस्ट इसी की कहानी बयां करती है. ऐसे में देश के प्रधानमंत्री मोदी मंच से एक मनमोहक कविता पढ़ते हुए कहते हैं कि "सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं बिकने दूंगा." और जनता उम्मीदों भरी निगाहों से अपने प्रधानमंत्री को अपलक निहारती रहती है.
ये प्रतीकात्मक तसवीरें संसद की नई इमारत की है, जो साल 2022 तक बनकर तैयार हो जाएगी. जिसे बनाने में क़रीब 1000 करोड़ रुपये खर्च होंगे. 10 दिसंबर 2020 को पीएम मोदी इसी इमारत का शिलान्यास करेंगे. ये इमारत तो जब बनेगी तब बनेगी. लेकिन इसके निर्माण से पहले ही एक विवाद जुड़ गया है. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे प्रोजेक्ट के अप्रूवल के तरीके पर नाराजगी भी जताई है. कितनी हैरान करने वाली बात है कि संसद की नई इमारत के निर्माण पर रोक लेकिन शिलान्यास की इजाज़त दे दी गई है. अब पीएम नरेंद्र मोदी गुरुवार को इस इमारत का शिलान्यास करने जा रहे हैं. आज हम बात करेंगे कि आखिर संसद की नई इमारत की जरुरत क्यों आन पड़ी? सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट क्या है? संसद की नई बिल्डिंग कहां बनेगी और इसका विरोध क्यों हो रहा है? विरोध करने वाले लोगों का क्या तर्क है? सुप्रीम कोर्ट का नई इमारत के निर्माण पर क्या कहना है? नई इमारत बनने के बाद अभी जो संसद भवन है, उसका क्या होगा? बारी-बारी से इन तमाम पहलुओं पर बारीक़ी से बात करेंगे. आइये, सबसे पहले जानते हैं कि आखिर संसद की नई इमारत क्यों बनाई जा रही है? *नई संसद की रिक्वायरमेंट को समझने के लिए हमें साल 1951 का रुख करना होगा. साल 1951 में जब पहली बार चुनाव हुए थे, तब देश की आबादी 36 करोड़ थी और 489 लोकसभा सीटें थीं। एक सांसद औसतन 7 लाख आबादी को रिप्रजेंट करता था। धीरे-धीरे देश की आबादी बढ़ती गई और आज देश की आबादी 138 करोड़ से ज्यादा है। आज एक सांसद औसतन 25 लाख लोगों को रिप्रजेंट करता है। आर्टिकल-81 के मुताबिक देश में 550 से ज्यादा लोकसभा सीटें नहीं हो सकती हैं। इनमें 530 राज्यों में जबकि 20 केंद्र शासित प्रदेशों में होंगी। फिलहाल देश में 543 लोकसभा सीटें हैं। इनमें 530 राज्यों में और 13 केंद्र शासित प्रदेशों में हैं। लेकिन, देश के आबादी को देखते हुए इसमें भी बदलाव की बात चल रही है। आर्टिकल-81 के मुताबिक हर जनगणना के बाद सीटों का परिसीमन मौजूदा आबादी के हिसाब के करने का भी प्रावधान था। लेकिन, 1971 के बाद से ऐसा नहीं हो पाया. पिछले साल यानी साल सितंबर 2019 में नई संसद बनाने का प्रस्ताव रखा गया था. इसमें 900 से लेकर 1200 सांसदों को बैठने का बंदोबस्त किया गया था. इस साल यानी मार्च 2020 में सरकार ने संसद को बताया कि पुरानी बिल्डिंग ओवर यूटिलाइज्ड हो चुकी है. साथ ही लोकसभा सीटों के नए सिरे से परिसीमन के बाद जो सीटें बढ़ेंगी, उनके सांसदों के बैठने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं रहेगी. ऐसे में संसद की नई बिल्डिंग बनवानी जरुरी सी मालूम होती है. जिसके बाद इस पर तेजी से काम होना शुरु हो गया और 5 दिसंबर 2020 को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने बताया कि "10 दिसंबर को इस नई इमारत की नींव रखेंगे और इसे 2022 तक पूरा कर लिया जाएगा. इसमें अनुमान के मुताबिक़ क़रीब 971 करोड़ रुपये की लागत आएगी. इस पूरे प्रोजेक्ट का निर्माण क्षेत्र 64,500 वर्ग मीटर होगा. यह मौजूदा संसद भवन से 17,000 वर्ग मीटर अधिक होगा. नई इमारत में लोक सभा कक्ष भूतल में होगा, जिसमें 888 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था होगी जबकि राज्य सभा में 384 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था होगी. संयुक्त बैठक के दौरान 1272 सदस्य इसमें बैठ सकेंगे." अब बात करते हैं कि ये सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट क्या है? *सेंट्रल विस्टा राजपथ के दोनों तरफ के इलाके को कहते हैं. राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट के करीब प्रिंसेस पार्क का इलाका इसके अंतर्गत आता है. इसके तहत राष्ट्रपति भवन, संसद, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, उपराष्ट्रपति का घर आता है. साथ ही नेशनल म्यूजियम, नेशनल आर्काइव्ज, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स, उद्योग भवन, बीकानेर हाउस, हैदराबाद हाउस, निर्माण भवन और जवाहर भवन भी सेंट्रल विस्टा का ही हिस्सा हैं. दरअसल, साल 2019 में केंद्र सरकार ने मौजूदा संसद के पास, संसद की एक नई त्रिकोणाकार इमारत बनाने के प्रोजेक्ट का ऐलान किया था. इस तरह इस पूरे इलाके को रिनोवेट करने की योजना को ही सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट नाम दिया गया. जिसका कई लोग विरोध भी कर रहे हैं. आइये, जानते हैं कि आखिर क्यों लोग इस निर्माण का विरोध क्यों कर रहे हैं? *इस प्रोजेक्ट का विरोध करने वालों में इतिहासकारों से लेकर कई पर्यावरणविद शामिल हैं. उनके विरोध करने की कई वजहें हैं, मसलन- अथॉरिटीज की तरफ से नियमों की अनदेखी करके प्रोजेक्ट को मंजूरी दी गई है। न तो इस प्रोजेक्ट का कोई पर्यावरण आॉडिट करवाया गया और न ही 80 एकड़ जमीन के ग्रीन कवर की भरपाई करने की कोई योजना बनाई गई. क्योंकि इस पूरे निर्माण के दौरान कम से कम एक हजार पेड़ काटे जाएंगे। जिसके चलते प्रदूषण से जूझ रही दिल्ली में हालात और खराब हो जाएंगे। इसी तरह प्रोजेक्ट का कोई ऐतिहासिक या हेरिटेज ऑडिट भी नहीं हुआ है. यहां तक कि नेशनल म्यूजियम जैसी ग्रेड 1 हेरिटेज इमारत को भी तोड़ा या उसमें बदलाव किया जाएगा. ये इमारतें आर्किटेक्चरल एक्सीलेंस और नेशनल इम्पोर्टेंस की हैं. इसके अलावा इस प्रोजेक्ट से करीब 80 एकड़ जमीन 'प्रतिबंधित' हो जाएगी और सिर्फ सरकारी अधिकारी उसे एक्सेस कर सकेंगे. अभी ये जमीन पब्लिक के लिए भी खुली है. इस तरह सुप्रीम कोर्ट में कम से कम 7 याचिकाएं इस प्रोजेक्ट के खिलाफ दायर की गई हैं. अब बात करते हैं सुप्रीम कोर्ट का नई इमारत के निर्माण पर क्या कहना है? *सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट मामले पर 7 दिसंबर 2020 को ही सुनवाई हुई है. SC ने केंद्र सरकार से कहा कि हमने इस मामले को सूचीबद्ध किया है क्योंकि कुछ डवलपमेंट पब्लिक डोमेन में आया है. ये सही है कि प्रोजेक्ट पर कोई रोक नहीं है. इसका मतलब यह नहीं है कि आप हर चीज के साथ आगे बढ़ सकते हैं. कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा, "हमें उम्मीद थी कि आप कागजी कार्रवाई आदि के साथ आगे बढ़ेंगे, लेकिन इतनी आक्रामक तरीके से आगे नहीं बढ़ेंगे कि आप निर्माण शुरू कर देंगे. कोई स्टे नहीं है इसका मतलब यह नहीं है कि आप निर्माण शुरू कर सकते हैं. 10 दिसंबर को आप शिलान्यास कार्यक्रम कर सकते है, आप कागजी कार्रवाई कर सकते हैं लेकिन वहां कोई निर्माण कार्य, तोड़फोड़ या पेड़ काटने का काम नहीं होगा.जब तक सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर क्लियरेंस नहीं देगी, तब तक सरकार इस मुद्दे पर कोई कदम आगे नहीं बढ़ाएगी." नई इमारत बनने के बाद अभी जो संसद भवन है, उसका क्या होगा? *ये सवाल बहुत अहम है. दरअसल संसद की मौजूदा इमारत को पुरातत्व धरोहर में बदल दिया जाएगा। इसका इस्तेमाल संसदीय कार्यक्रमों में भी किया जाएगा. *अब एक और सवाल यहां उठता है कि जो अमूमन हर भारतीय का है कि देश कोरोना महामारी से बुरी तरह जूझ रहा है. आम आदमी पैसों की कमी से जूझ रहा है. केंद्र ने राज्यों को जीएसटी के 2.35 लाख करोड़ रुपए नहीं दिए हैं। नौकरियां, इंक्रीमेंट सब टल रहे हैं तो फिर हजारों करोड़ के खर्च वाला नई संसद का निर्माण क्यों नहीं टाला जा रहा? विपक्ष ने कोरोना संकट के बीच खर्चीले सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को रोकने को कह रही है. लेकिन सरकार का इस मसले पर कोई राय नहीं आई है. उनका लक्ष्य है कि अगस्त 2022 यानी 75वें स्वतंत्रता दिवस तक हर हाल में नया संसद भवन बन जाना चाहिए. सरकार ! जनता भी तो अपने सपने, अपने लक्ष्यों की गुहार लगाना चाहती हैl
देश की राजधानी दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन की हैं. दावा किया जा रहा है कि इस आंदोलन को क़रीब 500 संगठनों का साथ मिला है और यूपी, पंजाब और हरियाणा के क़रीब 1 लाख किसान महीनेभर के राशन के साथ दिल्ली की सड़कों पर इकट्ठा हो रहे हैं.इन राज्यों में सरकार को मंडियों से काफी ज्यादा मात्रा में राजस्व की प्राप्ति होती है. इन किसानों को रोकने के लिए पुलिस बेरिकैड लगा रही है, आंसू गैस के गोले छोड़ रही है, इस ठंड में किसानों पर पानी की बौछारें कर रही हैं.. पुलिस का कहना है कि हम आपको यहां प्रदर्शन नहीं करने देंगे और किसानों का कहना है कि आप हमें जहां रोकेंगे, हम वहीं बैठकर-लेटकर सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन करेंगे. *सबसे पहले हमें ये जानना होगा कि आखिर इस आंदोलन के पीछे की वजह क्या है? दोस्तों, इस आंदोलन के पीछे की वजह 3 कानून को बताया जा रहा है. जिनकी वजह से किसानों को डर है कि उनका MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा. उनकी फसलों का उचित मूल्य भी नहीं मिल पाएगा. साथ ही उनसे उनके कई अधिकार छीन लिए जाएंगे. आइये, अब ये समझ लेते हैं कि आखिर ये 3 कानून कौनसे हैं? पहला कानून- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020 दूसरा कानून- कृषक (सशक्तिकरण-संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 तीसरा कानून- आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 ये तीनों ही क़ानून संसद के दोनों सदनों से पारित होकर कानून बन चुके हैं. किसान इन्हीं तीनों कानून को वापस लेने की मांग पर आंदोलन कर रहे हैं. आइये, अब बारी-बारी से इन पर बात करते हैं. *पहला कानून- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020- इस कानून का उद्देश्य- APMC द्वारा विनिमित मंडियो के बाहर फसलों की बिक्री की अनुमति देना है. इस कानून के तहत किसानों को मंडी के बाहर भी अपनी फसल बेचने की आजादी होगी. मार्केटिंग और ट्रांसपोर्टेशन का खर्च भी कम किया जाएगा. इससे राज्य के अंदर और दो राज्यों के बीच कारोबार को बढ़ावा मिलेगा. जबकि सरकार ने इस कानून के जरिये एपीएमसी मंडियों को एक सीमा में बांधने का काम किया है. (APMC) यानी एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी के स्वामित्व वाली मंडियों को उन बिलों में शामिल नहीं किया गया है. इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है. बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं. *इस कानून को लेकर किसानों का क्या कहना है?- किसानों का कहना है कि इससे MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का सिस्टम ही खत्म हो जाएगा. धीरे-धीरे मंडिया खत्म हो जाएगी. ई-नाम जैसे सरकारी पोर्टल का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा. और इस कानून के कराण किसान पूरी तरह से कारोबारियों के हवाले हो जाएगा. कारोबारी जो रेट तय करेगे, किसान को उस पर रेट पर फसल बेचनी पड़ेगी. इस कानून को लेकर सरकार का क्या कहना है?- वहीं सरकार का कहना है कि इस कानून से न तो एमएसपी पर कोई फर्क पडेगा और न ही मंडियों को बंद नहीं होने दिया जाएगा. लेकिन ये बात सरकार सिर्फ अपने बयान में ही कह रही है, नए कानून में इसे नहीं जोड़ा गया है. इसी के चलते किसानों में भारी असमंजस और असंतोष बना हुआ है. *दूसरा कानून- कृषक (सशक्तिकरण-संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020- इस कानून के तहत एग्रीकल्चर एग्रीमेंट पर नेशनल फ्रेमवर्क का प्रावधान किया गया है। ये कृषि उत्पादों की बिक्री, फार्म सेवाओं, कृषि बिजनेस फर्म, प्रोसेसर्स, थोक और खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जोड़ता है। इसके साथ किसानों को क्वालिटी वाले बीज की आपूर्ति करना, फसल स्वास्थ्य की निगरानी, कर्ज की सुविधा और फसल बीमा की सुविधा देने की बात इस कानून में है। आसान भाषा में कहें तो इस कानून का उद्देश्य कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को मंजूरी देना है. यानी आप की जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा. *इस कानून को लेकर किसानों का क्या कहना है?- किसानों का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट या एग्रीमेंट करने से किसानों का पक्ष कमजोर होगा। वो फसल की कीमत तय नहीं कर पाएंगे। विवाद की स्थिति में बड़ी कंपनियां फायदा उठाने की कोशिशि करेंगी और छोटे किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी. किसान कानून के भारी भरकम शब्द नहीं समझता लेकिन वो ये जानता है कि उसकी जमीन उसकी मां है, जिसे वो किसी और के हाथों बर्बाद नहीं देगा. इस कानून को लेकर सरकार का क्या कहना है?-सरकार का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट करना है या नहीं, इसमें किसान को पूरी आजादी रहेगी। वो अपनी इच्छा से दाम तय कर फसल बेच सकेंगे। देश में 10 हजार FPO बन रहे हैं। ये FPO छोटे किसानों को जोड़कर फसल को बाजार में सही कीमत दिलाने का काम करेंगे। विवाद की स्थिति में कोर्ट-कचहरी जाने की जरूरत नहीं होगी। स्थानीय स्तर पर ही विवाद निपटाया जाएगा। *3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट से हटाने का प्रावधान है। यानी इस तरह के खाद्य पदार्थ आवश्यक वस्तु की सूची से हटाई जाएंगी जिससे युद्ध व प्राकृतिक आपदा जैसी आपात स्थितियों को छोड़कर भंडारण की कोई सीमा नहीं रह जाएगी. *इस कानून को लेकर किसानों का क्या कहना है?- किसानों को डर है कि इस कानून के चलते बड़ी कंपनियां और बड़े किसान जमाखोरी करने लगेंगे। इससे कालाबाजारी बढ़ सकती है। इस कानून को लेकर सरकार का क्या कहना है?- सरकार का कहना है कि इस कानून के चलते किसान की फसल खराब होने की आंशका दूर होगी। वह आलू-प्याज जैसी फसलें बेफिक्र होकर उगा सकेगा। एक सीमा से ज्यादा कीमतें बढ़ने पर सरकार के पास उस पर काबू करने की शक्तियां तो रहेंगी ही। लेकिन किसानों को सरकार के ये तीनों ही कानून समझ में नहीं आ रहे. किसान कह रहे हैं कि सरकार तो बंद कमरों में कानून बना लेती हैं लेकिन हम तो किसान हैं, हमें उसके हकीकत की जमीन मालूम हैं.उनका मानना है कि इन तीनों नए कानूनों से कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुकसान किसानों को होगा. इसलिए आंदोलनकारी किसान 1 महीने के राशन के साथ दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं. अभी तक जो पता चला है, उसके मुताबिक सरकार तीनों कानूनों को वापस नहीं लेने वाली। सरकार का दावा है कि इन कानूनों का पास होना एक ऐतिहासिक फैसला है और इससे किसानों की जिंदगी बदल जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी ने इन कानूनों को आजादी के बाद किसानों का एक नई आजादी देने वाला बताया है। मोदी का कहना है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा नहीं मिलने की बात गलत है।
01 June 2023 06:59 PM
29 May 2023 09:45 AM
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हमारे पास कुछ मुट्ठी भर लोग हैं, या यूं कहें कि ना के बराबर ही हैं। लेकिन जो हैं, वो अपने काम को बेहद पवित्र और महत्वपूर्ण मानने वालों में से हैं। खर्चे भी सामर्थ्य से कुछ ज्यादा हैं और इसलिए समय भी बहुत अधिक नहीं है। ऊपर से अजीयतों से भरी राहें हमारे मुंह-नाक चिढ़ाने को सामने खड़ी दिखाई दे रही हैं।
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-बाबूलाल नागा
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