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शनिवार को बीकानेर के डूंगरगढ़ की आबो-हवा में सियासत घुली थी. धनेरू गांव में किसानी/सियासी मजमा जमा था. हजारों की भीड़ उमड़ी थी. मंच सजा था. मौक़ा था- किसान सम्मेलन. अचानक आवाज़ आने लगी- 'घर्रर्रर्रर्र.....' हवा में तैरता एक हेलिकॉप्टर दिखाई पड़ा. कई दर्जनों आंखें आसमां की तरफ देखने लगी. हेलीकॉप्टर एक था लेकिन देखने वालों के नज़रिये अनेक. उम्मीद, गरज, विश्वास और सियासत भी. लेकिन जब हेलीकॉप्टर 'ज़मीन' पर उतरा, तो सब हैरान रह गए. क्योंकि सीएम अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट दोनों एक ही हेलीकॉप्टर में आए थे. यानी कुछ वक्फे पहिले उखड़ी-बिखरी सरकार आज 'एक साथ' थी. 12 फरवरी को हनुमानगढ़ के किसान महापंचायत में सचिन पायलट साइडलाइन थे लेकिन 27 फरवरी को सचिन फ्रंटलाइन हो गए. यूं तो इस सम्मेलन में और भी कांग्रेसी सियासतदां थे, अजय माकन, बीडी कल्ला, गोविंद सिंह डोटासरा, भंवर सिंह भाटी, वीरेन्द्र बेनीवाल, विधायक भंवर लाल शर्मा, गजेंद्र सांखला वगैरह-वगैरह. लेकिन जहां पायलट हो, वहां तो ''सचिन...सचिन..' ही होता है. आख़िर पायलट 'सचिन' जो ठहरे. खैर, काफिला आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ता है. जयकारे गूंजने लगते है, और हां, सियासी सितारों की चमक से मंच थोड़ा और ख़ूबसूरत दिखने लगता है. उमंग, उत्साह का माहौल बनता है. कांग्रेस और किसान आंदोलन के समर्थन में झंडे ऊंचे दिखने लगते हैं. 'हाउझूझू' जनता कभी इधर देखती है, कभी उधर. तभी इस तरफ से आवाज़ आती है- "अशोक गहलोत" दूसरी तरफ से आवाज़ आती है "जिंदाबाद." और इसी 'ज़िंदाबाद' के नारे के साथ ही सामने से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती है. गहलोत संबोधित करते दिखते हैं "राजस्थान सरकार आमजन की सरकार हैं। इस सरकार ने जनता के लिये दिल खोलकर काम किया है. हमने कोरोना का डटकर मुकाबला किया, किसी को भी भूखा नहीं सोने दिया, मुफ्त चिकित्सा सुविधाएं दिलाईं. आज राजस्थान करीब-करीब कोरोना मुक्त है और नये केस भी कम आ रहे हैं." इसी 'किसान सम्मलेन' में चूरू जिले के सुजानगढ़ से आया एक बुजुर्ग गर्मी से परेशान होकर अख़बार से हवा ले रहा था. अख़बार तो कौनसा था, नामालूम । लेकिन पास बैठा एक बेरोजगार उसकी हेडलाइन पर मंद-मंद मुस्कुरा रहा था, लिखा था- "देश में धीरे-धीरे फैल रही है कोरोना की दूसरी लहर." तभी गहलोत की बुलंद लहजे में आवाज़ गूंजती है, "...इसके बावजूद हमें कोरोना प्रोटोकॉल रखना है." सीएम अशोक आगे बोलते हैं "सरकारें कभी जिद नहीं करतीं. प्रजातंत्र में मुखिया को जिद नहीं करनी चाहिए. केंद्रीय सरकार एक प्रजातांत्रिक सरकार है और उसे किसानों की बात पर सहानुभूति पूर्वक विचार करते हुए समाधान निकालना चाहिए. लोकतंत्र में धरना प्रदर्शन करना भी एक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है लेकिन वर्तमान परिस्थिति में केंद्र सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा रही है. सरकार को जिद छोड़कर, आगे आकर धरने पर बैठे किसानों से वार्ता करनी चाहिए." एक पल के ठहराव के बाद मुख्यमंत्री फिर गरजे कि "इस किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये से दुनिया भर में भारत की छवि प्रभावित हो रही है. कहा जा रहा है कि लोकतंत्र की धज्जिया उड़ रही हैं, लोकतंत्र कमजोर हो रहा है. लोकतंत्र में सरकार को जिद पर नहीं अड़ना चाहिए. सरकार को उदारता दिखानी चाहिए और संवेदनशील होना चाहिए, मोदी व अमित शाह को रात को नींद कैसी आती होगी, यह समझ के परे है." इसके बाद गहलोत ने यूनीवर्सल हैल्थ कवरेज, चिकित्सा बीमा सुविधा, आयुष्मान भारत-महात्मा गांधी राजस्थान स्वास्थ्य बीमा योजना के एनएफएसए. एवं एसईसीसी. परिवारों के साथ-साथ समस्त संविदाकर्मीयों, लघु एवं सीमान्त किसानों संबंधी कई बड़ी-बड़ी बातें कहीं. और हां, आखिर में जाते-जाते किसानों को इस साल 16 हजार करोड़ का ब्याज मुक्त फसली कर्ज देने की बात भी कह डाली. अपने इस संबोधन से सीएम गहलोत ने 3 जिलों के किसानों को भी लुभाने की कोशिश की, तो वहीं सुजानगढ़ के उपचुनावों के लिए वोटर्स को साधने की कोशिश भी की. सियासत के 'जादूगर' अशोक गहलोत ने हजारों की भीड़ के सामने बड़ी 'जादूगरी' से एक के बाद एक कई तीर निशाने पर लगाए और अपनी वाणी को विराम देकर मंचासीन हो गए. पूरा इलाका एक बार फिर से "अशोक गहलोत जिंदाबाद" के नारों से गूंज गया. इस कड़ी में एक के बाद एक पूर्व केन्द्रिय मंत्री अजय माकन, पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट, जन स्वास्थ्य एवं अभियांत्रिकी मंत्री डॉ बी डी कल्ला , उच्च शिक्षा मंत्री भंवरसिंह भाटी और गोविंद सिंह डोटासरा ने भी अपनी बात रखी. लेकिन जो 'जादूगरी' गहलोत ने दिखाई, बाकी सब फीके ही रह गए. किसान सम्मेलन को महिला एवं बाल विकास विभाग मंत्री ममता भूपेश, विधायक गोविन्द मेघवाल, विधायक कृष्णा पूनिया, विधायक नरेन्द्र बुढ़ानिया, मनोज मेघवाल, अख्तर शमीम, सोना देवी बावरी, सूरजाराम ढ़ाका, इदरीश गौरी, भंवर पुजारी आदि ने तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने की मांग में 'हां' में 'हां' जरूर मिलाई. जाने का वक़्त हो रहा था, इस कार्यक्रम के बाद अगले पड़ाव पर भी तो जाना था. हेलीकॉप्टर उड़ने को तैयार खड़ा था. गहलोत ने हाथ उठाकर अभिवादन किया और हेलीकॉप्टर 'घर्रर्रर्रर्र.....' की आवाज़ उड़ान भरने लगा. गहलोत 'हवा-हवाई' हो रहे थे. कई दर्जनों आंखें फिर से आसमां की तरफ देख रही थीं.
"उसूलों पे जहाँ आँच आये तो टकराना ज़रुरी है. जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रुरी है" *वसीम बरेलवी के इस शे'र के मायने कांग्रेस को समझने बेजा ज़रुरी है. क्योंकि उसके उसूलों पर भी आंच आ रही है और वर्चस्व पर भी सवाल उठ रहे हैं. खुद कांग्रेसी नेता चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि पार्टी के प्रति जनता के विश्वास में कमी आई है. अकुशल नेतृत्व, परिवारवाद, पार्टी के भीतरी लोकतंत्र में कमी, पार्टी की रीति-नीति में तमाम खामियां समेत इसकी कई वजहें गिनाई जा सकती हैं। *जब घर के लोग ही पार्टी की खामियां गिनाने लगे तो अन्दाजा लगा सकते हैं कि कांग्रेस कितनी बदत्तर हालात में है.लेकिन सुने कौन? पार्टी का आलाकमान अपने ही 21 लोगों के मन्तव्य को अनसुना कर रही है। पी चिदंबरम चीख-चीख कर बता रहे हैं, कपिल सिब्बल का भी यही कहना है, गुलाम नबी आजाद भी कांग्रेस को खामियों से आजाद कर देना चाहते हैं. सबकी बातों का लब्बोलुआब है कि कांग्रेस फकत आसमानी बातें करती हैं, उसने आम लोगों से नाता तोड़ लिया है। न तो उसके पांव ज़मीन पर हैं और न ही ज़मीनी स्तर का उसका जुड़ाव। ऐसे में कैसे जनता का दिल में उतरा जायेगा? *कांग्रेस कार्यसमिति के स्थायी सदस्य सलमान ख़ुर्शीद भी पार्टी के नेताओं के रवैये पर खुश नहीं हैं। उनका यह कहना कि वे हार के लिए नेतृत्व को जिम्मेदार नहीं मानते। कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम के नेतृत्व को लेकर पुर्नविचार का मतलब यह भी नहीं कि शीर्ष नेतृत्व में बदलाव किया जाए। यह उनकी दबी जुबान है। खुद गांधी परिवार के प्रति साफ़गोई से बचना चाहते हैं। ख़ुद को बचाए रखने के लिए सच को मीठे गुड़ की चाशनी से लपेटते दिखाई देते हैं। वो यह मानते हैं कि कांग्रेस में ब्लॉक, जिला व राज्य में फासला बढ़ गया है। सलमान खुर्शीद ने खुद अपने लिए कहा है कि वे सुधारवादी हैं, विद्रोही नहीं। कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रुरत है। *लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस के भीतर कोहराम मचा हुआ है। शीर्ष नेतृत्व को धरातल की टोह तक नहीं है। कई कांग्रेसी लोग पार्टी को रसातल में ले जाने को दोष सीधा सीधा राहुल गांधी को ही देते हैं। कौन कितना समझ पाता है यह तो भविष्य ही बताएगा। परन्तु कांग्रेस पार्टी का भारतीय लोकतंत्र के लिए जिंदा रहना जरूरी है। पार्टी पर वर्चस्व बनाए रखना चाहने वाला नेतृत्व इस सच को जान लें, नहीं तो और बुरा हश्र होना ही है। कांग्रेस का यूं गर्त में जाना भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। जाने कब कांग्रेस को इल्म होगा कि उसके उसूलों पर आंच आ रही है, जाने कब वो समझ पाएगी कि उसका भी कोई वजूद है. और अगर कांग्रेस को इन बातों का इल्म है तो फिर वो काहे नहीं टकराती है?
कोरोना ने पूरी दुनिया को तहस-नहस कर दिया है. हर तरफ कोहराम सा मचा है. दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यस्था गर्त में जा रही है. भारत कोरोना संक्रमितों के मामले में दुनिया का दूसरा देश बन चुका है. देश की अर्थव्यवस्था के तो हाल न ही पूछो तो बेहतर. कुछ ऐसे हाल-ए-जहां कर दिया है इस कम्बख्त कोरोना ने. इसी बीच भारत का सबसे बड़ा त्योहार दीपोत्सव भी आ गया है. लेकिन उलझन ये कि इस मायूस माहौल में भला कोई कैसे उत्सव मनाए? काम-धंधे मंदे पड़े हैं, जेबें खाली हैं, पटाखे बैन हैं, मिठाइयां मुंह चिढ़ाती हैं, दिलो-दिमाग़ हताश और निराश बैठे हैं. लेकिन हम भारतीय भी न ! ख़ुश होने का बहाना ढूंढ ही लेते हैं. त्योहार के तो नाम से जेहन में खु़शियां उमड़ने लगती है. इसलिए इस बार दीपावली को भी कुछ ख़ास अंदाज़ में मनाने की ठानी है. इस बार ऐसी दीपावली मनाएंगे, जैसी सदियों में एक बार मनती है. *मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र जी जब 14 बरस के वनवास के बाद लौटे, तो लोगों ने ख़ुशियों के दिए जलाए थे. तब कहां किसी ने पटाखे चलाए थे? कहां किसी चाइनीज लाइटों से घरों को सजाया था? कहां किसी ने दिखावे की दीपावली मनाई थी? इस बार भी भगवान ने हमें वैसा ही मौका दिया है. सरकारों ने प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए पटाखे बैन कर दिए, चीन की गुस्ताखियों के चलते चाइनीज चीजें बैन कर दी. कोरोना महामारी ने शो-ऑफ को खत्म कर दिया. पीछे बचा तो वही नैसर्गिकपन. *तो आइये,इस बार इसी नैसर्गिकपन के साथ दिवाली मनाते हैं, आइये, घरों में घी के दीये जलाते हैं, आइये, किसी कुम्हार का आशीर्वाद पाते हैं, आइये, नकारात्मकता को दूर भगाते हैं, सकारात्मकता को पास बुलाते हैं, आइये, इस बार इको-फ्रेंडली दीपावली मनाते हैं. क्योंकि ऐसी दिवाली बार-बार नहीं आती बल्कि सदियों में एक बार आती है.
नोएडा। राजस्थान डीपीआर आयुक्त महेंद्र सोनी ने 'सेशन ऑन मीडिया हेण्डलिंग' में डीपीआर की भूमिका पर एक शानदार टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि "कोई भी ख़बर गोपनीय नहीं होती। एक प्रशासक का दायित्व है कि तथ्यों की पूरी जांच कर लोकहित की सही ख़बर को सही समय पर मीडिया को दें।" इस बात में आयुक्त का प्रशासनिक अनुभव और पद की जिम्मेदारी बोलती है। उनकी यह बात जितनी सही है, उनके विभाग के लिए उतनी ही विरोधाभासी भी। अफसोस वाली बात है कि उनके विभाग का धरातल इस मानक से राब्ता नहीं रखता। *दरअसल जन सम्पर्क विभाग का काम सरकारी योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रमों, सन्देशों और सूचनाओं को जनहित में जारी करना है। लेकिन आज सवाल उठने लगे है कि क्या विभाग इस आदर्श की ढंग से पालना करता है? स्पष्ट शब्दों में कहें तो जवाब होगा- नहीं। आज इस विभाग के अधिकारियों के काम करने के तौर-तरीक़ों पर ही सवाल उठने लगे हैं। जनसम्पर्क अधिकारी अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। जो दिल करता है, वो परोसते हैं। जिससे दिल्लगी हुई, उसकी तारीफ़ के कसीदे पढ़ते हैं। फिर चाहे वो अफसर हो या फिर सत्तासीन नेता। किसी के महिमा मंडन पर कोई अंकुश नहीं। इन्हें देखकर कई बार तो लगता है जैसे किसी ने साल 1979 में आई फिल्म 'सरगम' का गीत बजा दिया हो कि- डफलीवाले डफली बजा मेरे घुँघरू बुलाते हैं, आ मैं नाचूं, तू नचा... *जिला स्तर पर पीआरओ क्या-क्या खेल कर लेते हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है। जो सामग्री जन संपर्क विभाग के हवाले से आई हो, उसे मीडियाकर्मी भी धड़ल्ले से इस्तेमाल कर लेते हैं। "भले ही तात्कालिक रूप से उसका कोई फर्क न पड़े लेकिन दुरगामी परिणाम जनता और सरकार के गले की फांस बन जाते हैं।" बानगी के तौर पर हम बीकानेर में 28 मार्च 2020 को हुई एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की बात करते हैं। जिसमें सीएम अशोक गहलोत और पूर्व कलेक्टर के बीच हुई बातचीत को संविदा पर पद के विरुद्ध कार्यरत सहायक निदेशक ने ऐसे महिमा मंडन किया कि कलक्टर के काम को 'आदर्श मॉडल' ही करार दिया। इसे यूं प्रचारित किया गया गोया देश के तमाम मॉडल्स इसके सामने फेल हों, फीके हों। आप ख़ुद फेसबुक पेज पर 'सुनहरे' अक्षरों में लिखी इस 'गौरवशाली' पोस्ट की स्क्रीनशॉट को देख सकते हैं. जिसकी पहली ही लाइन में कहा गया है कि 'प्रदेशभर में लागू होगा बीकानेर मॉडल।' ये और बात है कि वो दिन आज तक नहीं आया। उल्टा कोरोना के बढ़ते मामलों के चलते बीकानेर के दिन ही स्याह हो गए हैं। *उस वक्त मीडिया ने भी ऐसा ही छापा था। क्योंकि सरकार के जन संपर्क विभाग ने उन्हें ऐसा ही बताया था। यहां तक कि जिम्मेदार लोग भी ख़ुद की पीठ थपथपाने में मशगूल रहे लेकिन आज बीकानेर में कोरोना के हालात सबके सामने हैं। जहां अब तक कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा क़रीब 25,000 तक पहुंच गया है। उस वक्त आयुक्त या अन्य अधिकारी ने इस मामले पर कोई नोटिस ही नहीं लिया। ऐसी कारस्तानियां राजस्थान के अमूमन हर जिले में और सभी स्तरों पर हर दिन हो रही हैं। इसी का असर यह है कि डीपीआर के समाचारों को सरकार का महिमा मंडन मानकर पढ़ा जाने लगा है। जहां चहेतों की तो वाहवाही होती है और परिणाम जनता या विरोध के रूप में सरकार को भुगतना पड़ता है। अब इन्हें कौन समझाए कि महिमा मंडन के लिए लिखी गई ख़बर व्यवस्था में अड़चन का काम करती है. इसलिए मैंने ऊपर लिखा था कि "भले ही तात्कालिक रूप से उसका कोई फर्क न पड़े लेकिन दुरगामी परिणाम जनता और सरकार के गले की फांस बन जाते हैं।" *अब सवाल उठता है कि आख़िर ऐसी नौबत ही क्यों आती है? इसकी कई वजहें हैं, मसलन- ज़िले के पीआरओ की भूमिका का कभी आकलन ही नहीं होता। वो जनहित में सूचना देने की भावनाओं से कम और अपना प्रभाव जमाने की भावना से ज्यादा काम कर रहे हैं। वो हमेशा पाक साफ रहते हैं, जिसका खामियाजा सरकार और जनता को भुगतना पड़ता है। इसके अलावा पीआरओ और डीपीआर से जारी समाचारों में आदर्श का कोई पैमाना ही नहीं रह गया है। जनहित में सूचना की बात तो एक झटके में दरकिनार कर दी जाती हैं। दिखाई देता है तो कोरा और कोरा महिमा मंडन। यक़ीन न हो तो आप जिले के फेसबुक पेज पर क्लिक करके देख लीजिएगा. जहां उनके चहेते नेताओं के काम के शो-ऑफ के अलावा कुछ नहीं होता। अब आप ही बताइये कि इन खामियों के साथ राजस्थान डीपीआर आयुक्त महेंद्र सोनी की उपरोक्त टिप्पणी भला कैसे मेल खाए? *नए आयुक्त अपने प्रशासनिक अनुभव से इस विडम्बना को समझ सकते हैं। वो चाहें तो यह ढर्रा कुछ ही वक्फे में सुधार सकते हैं। उन्हें ज़िला स्तर पर जन सम्पर्क विभाग की कार्यशैली को जांचने, परखने और निर्देशित करने की ज़रुरत है। अगर वे सख्त क़दम उठाएं तो जनता और सरकार के बीच महिमा मंडन से व्यवस्था में उभरे सफेद बादल छंट सकते हैं। तस्वीर साफ दिखेगी तो यथार्थ का चित्र भी 'नीट एंड क्लिक' होगा।
हेम शर्मा ख़बर अपडेट, नोएडा। वेदों में कहा गया है कि "गावो विश्वस्य मातरः।" यानी गाय सम्पूर्ण विश्व की माता है। देश के विकास की गाथाओं में कई तरह की क्रांतियों का जिक्र मिलता है, मसलन- हरित क्रांति, धवल क्रांति वगैरह-वगैरह। लेकिन मौजूदा दौर में गिरती अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए बात करें तो गौ क्रांति की आवश्यकता महसूस होती है। अब आप पूछेंगे कि 'गौ क्रांति' ? भला वो कैसे? तो आज 'मेरी बात' के इस ख़ास कॉलम में हम 'गो क्रांति' के मायनों को क़रीब से समझने की कोशिश करेंगे। *20वीं पशुगणना की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में गायों की आबादी 14.51 करोड़ है। जो कि पिछली संख्या से 18% ज़ियादा है। भारत की आबादी 130 करोड़ की है, वहीं गौवंश की 14.51 की आबादी एक बड़ा आंकड़ा है। यह संख्या इतनी बड़ी है कि हर भारतीय को अहसास है कि "गाय नहीं तो घर नहीं।" यानी हर भारतीय किसी न किसी आवश्यकता के लिए गाय पर निर्भर है। *अक्सर जब लोगों से पूछा जाता है कि उनके लिए गाय के क्या मायने हैं। तो वो कहते हैं कि "गाय हमें दूध देती है।" और बस ! इस एक लाइन के बाद ज्यादा कुछ बता नहीं पाते। जबकि जवाब है कि "गाय सिर्फ़ दूध ही नहीं देती, वो इस मंदी और बेरोजगारी के दौर में देश को जल्द ही नया जीवन भी देने वाली है।" जिसकी पहली कड़ी का आग़ाज़ हो चुका है और वो है- गौ क्रांति। जो यह बताएगी कि गाय के दूध के अलावा गोबर, गौमूत्र, पंचगव्य समेत ऐसे कई बिंदु हो सकते हैं, जो देश की सकल राष्ट्रीय आय को पटरी पर ला सकती है।राष्ट्रीय कामधेनु आयोग भी इसी दिशा में सोच रहा है। भारत सरकार के योजना आयोग के समक्ष गोमय जो ऊर्जा का सतत स्त्रोत हैं, के औद्योगिक उत्पाद की योजनाएं विचाराधीन है। वहीं छतीसगढ़ सरकार ने गो पालकों को गोबर-गोमूत्र का पैसा देकर इसकी उपादेयता को सरकारी नीति में स्वीकार कर लिया है। राजस्थान सरकार के सामने भी गोबर-गोमूत्र का गो पालकों को मूल्य देने, गोबर से खाद व गोमूत्र से कीट नियत्रंक बनाने की सरकार की नीति निर्धारण का प्रस्ताव दिया गया है। देशभर में गोमय से उत्पाद बनाने और विपणन के कार्य छोटे-छोटे स्तरों पर हो रहे हैं। वहीं देशभर में सैंकड़ों संस्थाएं इस मुद्दे पर एक मंच पर आ रही हैं। इससे जुड़े नए-नए स्टार्ट अप खुल रहे हैं। 80 से 85 हजार करोड़ का गोबर से खाद और गोमूत्र से किट नियत्रंक का उत्पादन और विपणन का नया क्षेत्र खुलने वाला है। यह नया औद्योगिक क्षेत्र भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सीधा निवेश होगा। देश के गांव में हर हाथ में काम होगा। देश के सकल उत्पादन और आय में बढ़ोतरी होगी।कुल मिलाकर देश के आर्थिक क्षेत्र में हरित और धवल क्रान्ति के बाद 'गो क्रांति' का सूत्रपात हो गया हैं।
'ख़बर अपडेट डॉट कॉम' एक स्वच्छंद उड़ान का नाम है. जिसे शुरु करने के पीछे एक टीस भी है, वो यह कि क्यों राष्ट्रीय पत्रकारिता बड़े शहरों के नाम से ही जानी आती है? आख़िर क्यों यह छोटे शहरों से संभव नहीं? मज़ा तो तब आये, जब छोटे शहरों में भी दिल्ली मीडिया जैसा कलेवर हो। वैसा ही ऑडियो-विजुअल, वैसा ही ग्राफिक्स, वैसी ही टेक्निक और वैसा ही नॉलेज। जो ये एहसास कराए कि डिजिटल मीडिया चाहे तो किसी मसले को 7 समंदर पार भी पहुंचा दे । बड़े शहरों से लोग यहां पत्रकारिता करने आएं। बस ! इसी सोच का नाम है- ख़बर अपडेट डॉट कॉम. जो यह मानता है कि बड़ी पत्रकारिता छोटे शहरों से भी की जा सकती है. वो भी 'मन का राजा' बनकर. *ख़बर अपडेट न तो कोई बड़ा मीडिया घराना हैं और न ही बड़े मीडिया हाउसेज जितना समृद्ध-सम्पन्न, लेकिन हां, हमारे पास ऐसे लोग ज़रूर हैं, जो ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करते आये हैं। ख़बर अपडेट को देश के स्थापित प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक और डिजिटल मीडिया हाउस के तजुर्बेदार पत्रकारों ने बनाया है. इसमें काम करने वाले मुट्ठीभर लोग अपने काम को बेहद पवित्रता और नयेपन के साथ करने की चाह रखते हैं। हमारे पास ग्राउंड रिपोर्ट्स हैं, सत्य है, निडरता है, वो पत्रकारिता है, जो इसे औरों से विशिष्ट बनाती है। यहां ख़बर मतलब खालिस सियासत नही होगी, बल्कि ख़बर मतलब सामाजिक सरोकार भी होंगे। इसी सोच के साथ हम छोटे शहर से बड़ी पत्रकारिता की शुरुआत करने जा रहे हैं. वो भी नए कलेवर में और लीक से ज़रा हटकर. तभी तो इस वेबसाइट का लॉन्चिंग भी किसी बड़ी शख्सियत से न करवाकर 3 महीने की छोटी बच्ची 'प्रिशा' से करवा रहे हैं। नयेपन का आग़ाज़ यहीं से किया है। *दोस्तों, आपने हमारे YouTube channel- Khabar Update को बाहें फैलाकर प्यार किया है। 3,50,000 Subscribers और करीब 10 करोड़ दर्शकों वाले हमारे चैनल की असली ताक़त- आपका ये भरोसा ही है। जो हमें हौसला देता है कि नामुमकिन नाम की कोई फ़ाख्ता नहीं होती। खैर, हमें इस शहर और सूबे के ज़रिए देश को बहुत कुछ देना है। हमारे सामने पहाड़ सरीखा ऊंचा मकसद है। जिन्हें हम नन्हें क़दमों से मापना शुरू कर रहे हैं। हम जानते हैं कि रास्ते में कांटे भी होंगे, पत्थर भी चुभेंगे, कई बार लड़खड़ाएंगे भी। लेकिन इतना भरोसा ज़रूर है कि आप हमें गिरने नहीं देंगे। हमें थाम लेंगे. इसी उम्मीद के साथ www.khabarupdate.com अब आपका हुआ। ये अब आपको समर्पित... सुमित शर्मा, एडिटर, ख़बर अपडेट
सुमित शर्मा। ख़बर अपडेट, नोएडा। दुनिया के सबसे ताक़तवर देश अमेरिका में अब तक 9,120,751 लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं. इन्हीं आंकड़ों के साथ अमेरिका कोरोना संक्रमितों के साथ मामलों में पूरी दुनिया में पहले नंबर पर है. अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर आता है- भारत का, जहां 8,040,203 लोग संक्रमित हैं। पहले और दूसरे नंबर की संख्या में कोई ज़ियादा फासला नहीं है। अमेरिका संपन्न राष्ट्र है, जैसे-तैसे संभल जाएगा लेकिन सीमित संसाधनों और गिरती अर्थव्यवस्था वाले भारत का क्या होगा? इस पर मंथन करना बेजा ज़रुरी मालूम होता है। इस कड़ी में सबसे अहम सवाल यही कि भारत में कोरोना संक्रमितों की बढ़ती तादाद की सबसे अहम वजह क्या है? आज 'मेरी बात' में हम इसी पर बात करेंगे। *जैन धर्म के आचार्य श्री तुलसी ने कहा है कि "निज पर शासन, फिर अनुशासन" मायने ये कि पहले खुद किसी बात की पालना करें फिर दूसरों को कहें। भारत में कोरोना के फैलाव पर यह बात एकदम सटीक बैठती है. कोरोना को लेकर लापरवाहियों पर लोगों का खुद पर शासन नहीं है और दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वो सावधानियां रखें. देश में कोरोना के बढ़ते मामलों के लिए हम लोग सबसे पहले जिम्मेदार हैं क्योंकि हाल ही एक रिसर्च रिपोर्ट में दावा किया गया था कि "जब 50 से 80 फीसदी लोग मास्क पहनते हैं, हाथों को बार-बार अच्छे से धोते रहते हैं, एक-दूसरे से 6 फीट की दूरी रखते हैं, भीड़ इकट्ठी नहीं करते हैं तो वहां कोविड-19 नियंत्रित की स्थिति में होता है।" लेकिन भारत में ज़्यादातर जगहों पर हालात इसके उलट ही हैं, तभी तो भारत दूसरे नंबर पर काबिज है. निष्कर्ष निकलता है कि 50-80 फीसदी लोग कोरोना एडवायजरी की ढंग से पालना तक नहीं करते। *हमारा खुद पर ही नियंत्रण नहीं है और हम दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वो मास्क लगाएं, दूरी बनाए रखें, कोरोना एडवाइजरी की पालना करें. लेकिन फिर दूसरा भी तो ठीक वैसा ही सोचता है, जैसा आप सोचते हैं। नतीजतन जब हालात नियंत्रण के बाहर हो जाते हैं और तब हम शासन और तंत्र को कोसने लगते हैं. हां, मानते हैं कि सरकारें भी जनता की उम्मीदों पर पूरी तरह खरा नहीं उतर पाई लेकिन हम भी तो उनकी आलोचना करने का नैतिक अधिकार खो चुके हैं। *सरकारें बार-बार कहती हैं कि "जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं. कोरोना एडवायजरी आदत में शुमार करें." लेकिन हम सबकी तो आदत बन चुकी है- उनकी अनदेखी करने की। अगर निष्पक्ष आकलन करें तो सरकारों और प्रशासन के स्तर पर कोरोना के प्रति जागरुकता पर सराहनीय कार्य हुआ है। व्यवस्था में नागरिकों की भी सहयोग में जिम्मेदारी बनती है। निश्चित ही व्यवस्था में कमियां औऱ खामियां रहती है। लेकिन कितना अच्छा हो कि समस्या पर नहीं, समाधान पर बात हो. खैर, हिंदी में एक शब्द है 'आत्ममंथन'. हम सबको इस शब्द के मायने समझने की ज़रुरत है. आत्ममंथन करके यह जानने की जरुरत है कि कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए हमने क्या किया? क्या हमने कोरोना एडवायजरी की ढंग से पालना की? मास्क पहनने की जरुरत समझी? वो सब बातें समझने और स्वीकारने की कोशिश की, जो कोरोना के फैलाव को रोके या फिर सिर्फ सरकार और प्रशासन को ही खरी-खोरी सुनाते, कमियां निकालते रह गए? मंथन कीजिए, फिर शायद 'निज पर शासन, फिर अनुशासन के मायने समझ भी आ जाए.
01 March 2021 06:31 PM
01 March 2021 04:53 PM
01 March 2021 01:26 PM
28 February 2021 01:40 PM
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'भारत अपडेट' शुरू करने के पीछे एक टीस भी है। वो यह कि मैनस्ट्रीम मीडिया वो नहीं दिखाती, जो उन्हें दिखाना चाहिए। चीखना-चिल्लाना भला कौनसी पत्रकारिता का नाम है ? तेज़ बोलकर समस्या का निवारण कैसे हो सकता है भला? यह तो खुद अपने आप में एक समस्या ही है। टीवी से मुद्दे ग़ायब होते जा रहे हैं, हां टीआरपी जरूर हासिल की जा रही है। दर्शक इनमें उलझ कर रह जाता है। इसे पत्रकारिता तो नहीं कहा जा सकता। हम तो कतई इसे पत्रकारिता नहीं कहेंगे।
हमारे पास कुछ मुट्ठी भर लोग हैं, या यूं कहें कि ना के बराबर ही हैं। लेकिन जो हैं, वो अपने काम को बेहद पवित्र और महत्वपूर्ण मानने वालों में से हैं। खर्चे भी सामर्थ्य से कुछ ज्यादा हैं और इसलिए समय भी बहुत अधिक नहीं है। ऊपर से अजीयतों से भरी राहें हमारे मुंह-नाक चिढ़ाने को सामने खड़ी दिखाई दे रही हैं।
हमारे साथ कोई है तो वो हैं- आप। हमारी इस मुहिम में आपकी हौसलाअफजाई की जरूरत पड़ेगी। उम्मीद है हमारी गलतियों से आप हमें गिरने नहीं देंगे। बदले में हम आपको वो देंगे, जो आपको आज के दौर में कोई नहीं देगा और वो है- सच्ची पत्रकारिता।
आपका
-बाबूलाल नागा
एडिटर, भारत अपडेट
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