हेम शर्मा, प्रधान संपादक
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18 November 2020 12:11 PM
बीकानेर में राह चलते व्यक्ति से अगर आप पूछेंगे कि "प्रिंस बिजय सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल कहां पर है"?
तो काफी हद तक मुमकिन है कि वो कह दे कि "म्हें तो नाम ही पहली बार सुणयो है, ओ कठे है?"
फिर आप पूछें कि "पीबीएम हॉस्पिटल कहां है?"
तो वो हंसते हुए कहेगा कि "ओ तो अंबेडकर सर्किल माथे है."
जैसी उलझन पीबीएम अस्पताल के नाम को लेकर होती है, ठीक वैसी ही उलझन पीबीएम अस्पताल की व्यवस्था को लेकर है. अव्यवस्थाएं दिखती सबको हैं, मगर सब अनजान हैं.
संभाग का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल पीबीएम ख़ुद बीमार पड़ा है. व्यवस्थाएं स्ट्रक्चर पर बेसुध पड़ी हैं. क्या डॉक्टर, क्या नर्सिंग स्टाफ और क्या ही सफाई कर्मचारी? सब पर सवाल पर सवाल उठ रहे हैं. किसी की हड्डी भी फैक्चर हो जाए तो महीनेभर तक इलाज मयस्सर नहीं होता, कोई डॉक्टर से मिलने जाए तो चक्कर पर चक्कर काटने पड़ जाए. कौन नहीं जानता कि पीबीएम में दलाल, गिरोहबंदी सक्रिय होने को लेकर कई बार बवाल मचा है. रही-सही कसर इस कोरोना काल ने पूरी कर दी. बैड की मारामारी, ऑक्सीजन की किल्लत.. उफ्फ ! कोई क्या ही करे? मतलब साफ है कि व्यवस्थाओं में खामियां हैं और इन्हीं खामियों का खामियाजा प्रशासन और सरकार को भुगतना पड़ता है.
इसी डर के चलते ज़िला कलक्टर को देर रात औचक निरीक्षण करना पड़ता है। नदारद नर्सिंग और सफाईकर्मियों के खिलाफ एक्शन लेने के निर्देश देने पड़ते हैं. लापरवाही पर जवाबदेही, डॉक्टर्स को टीम स्प्रिट और समन्वय से काम करने, ऑक्सीजन की समुचित व्यवस्था, मरीजों की भर्ती, जांच में गंभीरता के बर्ताव की बात कलक्टर को बतौर निर्देश कहनी पड़ रही है. आह ! कैसी विडंबना है यह? जो काम अस्पताल प्रशासन को करना चाहिए, क्यों उसकी चिंता कलक्टर को करनी पड़ रही है?
सवाल उठता है कि आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों मोटी तनख्वाह लेने वाले कार्मिक अपना काम ढंग से नहीं करते? सब संसाधनों के बावजूद भी क्यों शिकायतों का ढेर लग जाता है? पीबीएम की व्यवस्थाओं में जबरदस्त कॉकस बना हुआ है। इसमें स्थानीय राजनीति, चिकित्सा व्यवसाय में दलाल और डॉक्टर का मिलाजुला कॉकस काम करता है। पिछली सरकार को पीबीएम अस्पताल की विसंगतियों की रिपोर्ट दी गई थी। इस रिपोर्ट को फिर से समझने की जरूरत है। अरे ! लापरवाही का आलम तो यह है कि जिन वरिष्ठ डॉक्टरों को टीम स्प्रिट और समन्वय से काम करने की सलाह दी जाती है, वो ख़ुद आउट डोर में बैठते ही नहीं. ये बात ख़ुद कलक्टर भी जानते होंगे। और अगर नहीं जानते तो उन्हें यह जानने की जरुरत है।
ऐसा नहीं है कि पूरा अस्पताल ही लापरवाह है. कई डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ व सफाईकर्मी बेशक निष्ठा से काम कर रहे हैं। वे मानवता और अपने दायित्वों को मानते हैं। जनता में उनके प्रति गहरी श्रद्धा भी है, लेकिन वो कहते हैं ना कि कुछ मछलियां सारे तालाब को गंदा कर देती हैं. बस ! वहीं पर काम करने की जरूरत है. अस्पताल को भी अपनी नीयत बदलने की जरूरत है. डॉक्टरों, नर्सिंग स्टाफ और पीबीएम में काम कर रहे सभी स्तर के कॉकस की नीयत बदलने की ज़रूरत है। और ऐसा सरकार द्वारा कठोर निर्णय लेने से ही यह संभव है।
अगर ऐसा हो गया तो जरूर जब अगली बार कोई पूछेगा कि "प्रिंस बिजय सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल" कौनसा है? तो राह चलता कोई व्यक्ति फक्र से मुस्कुराकर कहेगा- "ये है ना हमारा पीबीएम अस्पताल". इसलिए हे सरकार ! पीबीएम की नीयत बदलिए, अधीक्षक नहीं. क्योंकि अधीक्षक तो फकत नाम है और नाम में क्या रखा है? बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि "नीयत साफ हो तो नियति भी साथ होती है".
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