सुमित शर्मा, संपादक
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10 December 2020 08:39 PM
ये बात तब की है जब नरेंद्र मोदी देश के पीएम नहीं थे. तारीख- 20 फरवरी 2014..गुजरात के अहमदाबाद में पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की रैली थी. मंच सजा था. लोगों का हुजूम उमड़ा था. मोदी ने हाथ उठाकर जनता का अभिवादन किया और गीतकार प्रसून जोशी की लिखी एक कविता पढ़कर सुनाई. इस कविता के बोल थे- सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं बिकने दूंगा. लेकिन.. जो मोदी सरकार कहा करती थी कि मैं देश नहीं बिकने दूंगा, उसी मोदी सरकार के कार्यकाल में सबसे ज्यादा सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेच दी गई. मोदी ने जब पहली बार "मैं देश नहीं बिकने दूंगा" कहा था. उस साल से यानी 2014 से अब तक मोदी सरकार 121 सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेची चुकी है. इसी कड़ी में अब मोदी सरकार देश की दूसरी सबसे बड़ी फ्यूल रिटेलर कंपनी-भारत पेट्रोलियम यानी BPCL में 53.3% हिस्सेदारी बेचने की तैयारी कर रही है. जिसके बिकने पर सरकार को 40 हजार करोड़ रुपये मिलने का अनुमान है. मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर जितनी रकम जुटाई गई है, उतनी रकम 23 सालों में भी नहीं जुटाई जा सकी.
सरकार द्वारा सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी को बेचने के प्रोसेस को डिस-इन्वेस्टमेंट यानी विनिवेश कहते हैं. जिस तरह इनवेस्टमेंट का मतलब निवेश करना या पैसे लगाना होता है, उसी तरह डिस-इनवेस्टमेंट का मतलब ठीक इसका उल्टा होता है यानी पैसे निकाल लेना होता है. लेकिन सवाल उठता है कि आखिर सरकार डिस-इनवेस्टमेंट करती क्यों है? तो इसके पीछे कई वजहें होती हैं, जैसे-
डिस-इनवेस्टमेंट से जुड़ा एक सवाल बहुत बार पूछा जाता है कि क्या डिस-इनवेस्टमेंट से हर तरफ प्राइवेटाइजेशन यानी निजीकरण हो जाएगा? इसका जवाब जानने के लिए हमें डिस-इनवेस्टमेंट और प्राइवेटाइजेशन की परिभाषा को समझना जरूरी है. दरअसल ये दोनों ही अलग-अलग चीजें हैं. प्राइवेटाइजेशन में सरकार 51% से ज्यादा हिस्सेदारी किसी निजी कंपनी को बेच सकती है. इसमें सरकार का मालिकाना हक़ खत्म हो जाता है. वहीं डिस-इनवेस्टमेंट में सरकार कुछ ही हिस्सा बेच सकती है. इसमें सरकार का कंपनी पर मालिकाना हक बरकरार रहता है. डिस-इनवेस्टमेंट को लेकर एक और सवाल पूछा जाता है कि क्या डिस-इनवेस्टमेंट से नौकरियां कम हो जाएंगी? तो इसका सीधा सा जवाब है कि अगर डिस-इनवेस्टमेंट में किसी सरकारी कंपनी का कुछ हिस्सा किसी प्राइवेट कंपनी को बेचा जाता है तो इससे कंपनी की मिल्कियत और इसका मैनेजमेंट सरकार के पास ही होता है. ऐसे में स्टाफ को नौकरियों से निकालने या वर्कफोर्स को कम करने की जरुरत नहीं पड़ती. लेकिन अगर सरकार अपनी कंपनी को निजीकरण के अंतर्गत 51 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बेच देती है तो सरकार की मिल्कियत और मैनेजमेंट दोनों खत्म हो जाते हैं. ऐसे में प्राइवेट कंपनियां अपनी जरुरत के हिसाब से नौकरियां घटा-बढ़ा सकती हैं.
लेकिन..लेकिन...लेकिन निजीकरण और विनिवेश अभी ऐसे माहौल में हो रहा है जब देश कोरोना और बेरोज़गारी के बड़े संकट से जूझ रहा है.CMIE यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में भारत में बेरोजगारी की दर तेजी से बढ़ी है. कोरोना वायरस ने भी बेरोजगारी बढ़ाने में अहम रोल प्ले किया है. ऊपर से डिस-इनवेस्टमेंट का ये कठिन दौर भी. जहां जनता कहती है कि नौकरियां दो. और सरकार टारगेट रखती है कि साल 2020-21 के लिए सरकार ने विनिवेश के जरिए 2.10 लाख करोड़ रुपए जुटाने हैं. साल 2014 से 2020 तक सरकार 121 सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेच चुकी है..ये फेहरिस्ट इसी की कहानी बयां करती है. ऐसे में देश के प्रधानमंत्री मोदी मंच से एक मनमोहक कविता पढ़ते हुए कहते हैं कि "सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं बिकने दूंगा." और जनता उम्मीदों भरी निगाहों से अपने प्रधानमंत्री को अपलक निहारती रहती है.
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