हेम शर्मा, प्रधान संपादक
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06 November 2020 10:32 PM
नोएडा। राजस्थान डीपीआर आयुक्त महेंद्र सोनी ने 'सेशन ऑन मीडिया हेण्डलिंग' में डीपीआर की भूमिका पर एक शानदार टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि "कोई भी ख़बर गोपनीय नहीं होती। एक प्रशासक का दायित्व है कि तथ्यों की पूरी जांच कर लोकहित की सही ख़बर को सही समय पर मीडिया को दें।" इस बात में आयुक्त का प्रशासनिक अनुभव और पद की जिम्मेदारी बोलती है। उनकी यह बात जितनी सही है, उनके विभाग के लिए उतनी ही विरोधाभासी भी। अफसोस वाली बात है कि उनके विभाग का धरातल इस मानक से राब्ता नहीं रखता।
दरअसल जन सम्पर्क विभाग का काम सरकारी योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रमों, सन्देशों और सूचनाओं को जनहित में जारी करना है। लेकिन आज सवाल उठने लगे है कि क्या विभाग इस आदर्श की ढंग से पालना करता है? स्पष्ट शब्दों में कहें तो जवाब होगा- नहीं। आज इस विभाग के अधिकारियों के काम करने के तौर-तरीक़ों पर ही सवाल उठने लगे हैं। जनसम्पर्क अधिकारी अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। जो दिल करता है, वो परोसते हैं। जिससे दिल्लगी हुई, उसकी तारीफ़ के कसीदे पढ़ते हैं। फिर चाहे वो अफसर हो या फिर सत्तासीन नेता। किसी के महिमा मंडन पर कोई अंकुश नहीं। इन्हें देखकर कई बार तो लगता है जैसे किसी ने साल 1979 में आई फिल्म 'सरगम' का गीत बजा दिया हो कि-
डफलीवाले डफली बजा
मेरे घुँघरू बुलाते हैं, आ मैं नाचूं, तू नचा...
जिला स्तर पर पीआरओ क्या-क्या खेल कर लेते हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है। जो सामग्री जन संपर्क विभाग के हवाले से आई हो, उसे मीडियाकर्मी भी धड़ल्ले से इस्तेमाल कर लेते हैं। "भले ही तात्कालिक रूप से उसका कोई फर्क न पड़े लेकिन दुरगामी परिणाम जनता और सरकार के गले की फांस बन जाते हैं।" बानगी के तौर पर हम बीकानेर में 28 मार्च 2020 को हुई एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की बात करते हैं। जिसमें सीएम अशोक गहलोत और पूर्व कलेक्टर के बीच हुई बातचीत को संविदा पर पद के विरुद्ध कार्यरत सहायक निदेशक ने ऐसे महिमा मंडन किया कि कलक्टर के काम को 'आदर्श मॉडल' ही करार दिया। इसे यूं प्रचारित किया गया गोया देश के तमाम मॉडल्स इसके सामने फेल हों, फीके हों। आप ख़ुद फेसबुक पेज पर 'सुनहरे' अक्षरों में लिखी इस 'गौरवशाली' पोस्ट की स्क्रीनशॉट को देख सकते हैं. जिसकी पहली ही लाइन में कहा गया है कि 'प्रदेशभर में लागू होगा बीकानेर मॉडल।' ये और बात है कि वो दिन आज तक नहीं आया। उल्टा कोरोना के बढ़ते मामलों के चलते बीकानेर के दिन ही स्याह हो गए हैं।
उस वक्त मीडिया ने भी ऐसा ही छापा था। क्योंकि सरकार के जन संपर्क विभाग ने उन्हें ऐसा ही बताया था। यहां तक कि जिम्मेदार लोग भी ख़ुद की पीठ थपथपाने में मशगूल रहे लेकिन आज बीकानेर में कोरोना के हालात सबके सामने हैं। जहां अब तक कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा क़रीब 25,000 तक पहुंच गया है। उस वक्त आयुक्त या अन्य अधिकारी ने इस मामले पर कोई नोटिस ही नहीं लिया। ऐसी कारस्तानियां राजस्थान के अमूमन हर जिले में और सभी स्तरों पर हर दिन हो रही हैं। इसी का असर यह है कि डीपीआर के समाचारों को सरकार का महिमा मंडन मानकर पढ़ा जाने लगा है। जहां चहेतों की तो वाहवाही होती है और परिणाम जनता या विरोध के रूप में सरकार को भुगतना पड़ता है। अब इन्हें कौन समझाए कि महिमा मंडन के लिए लिखी गई ख़बर व्यवस्था में अड़चन का काम करती है. इसलिए मैंने ऊपर लिखा था कि "भले ही तात्कालिक रूप से उसका कोई फर्क न पड़े लेकिन दुरगामी परिणाम जनता और सरकार के गले की फांस बन जाते हैं।"
अब सवाल उठता है कि आख़िर ऐसी नौबत ही क्यों आती है? इसकी कई वजहें हैं, मसलन- ज़िले के पीआरओ की भूमिका का कभी आकलन ही नहीं होता। वो जनहित में सूचना देने की भावनाओं से कम और अपना प्रभाव जमाने की भावना से ज्यादा काम कर रहे हैं। वो हमेशा पाक साफ रहते हैं, जिसका खामियाजा सरकार और जनता को भुगतना पड़ता है। इसके अलावा पीआरओ और डीपीआर से जारी समाचारों में आदर्श का कोई पैमाना ही नहीं रह गया है। जनहित में सूचना की बात तो एक झटके में दरकिनार कर दी जाती हैं। दिखाई देता है तो कोरा और कोरा महिमा मंडन। यक़ीन न हो तो आप जिले के फेसबुक पेज पर क्लिक करके देख लीजिएगा. जहां उनके चहेते नेताओं के काम के शो-ऑफ के अलावा कुछ नहीं होता। अब आप ही बताइये कि इन खामियों के साथ राजस्थान डीपीआर आयुक्त महेंद्र सोनी की उपरोक्त टिप्पणी भला कैसे मेल खाए?
नए आयुक्त अपने प्रशासनिक अनुभव से इस विडम्बना को समझ सकते हैं। वो चाहें तो यह ढर्रा कुछ ही वक्फे में सुधार सकते हैं। उन्हें ज़िला स्तर पर जन सम्पर्क विभाग की कार्यशैली को जांचने, परखने और निर्देशित करने की ज़रुरत है। अगर वे सख्त क़दम उठाएं तो जनता और सरकार के बीच महिमा मंडन से व्यवस्था में उभरे सफेद बादल छंट सकते हैं। तस्वीर साफ दिखेगी तो यथार्थ का चित्र भी 'नीट एंड क्लिक' होगा।
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