हेम शर्मा, प्रधान संपादक
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07 November 2020 02:58 PM
बीकानेर । आजादी के बाद भी ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में संसाधनों की कमी, ग़रीबी और अभिभावकों में अशिक्षा के चलते बालिका शिक्षा बड़ी चुनौती रही। उरमूल ट्रस्ट ने इस चुनौती पर बख़ूबी काम किया। इसके अगुवा बने अरविंद ओझा। वे आज प्रकृति में विलीन हो गए। कोरोना महामारी ने उनको लील लिया। उनके कृतित्व की झांकी मैंने भी देखी है। उदयरामसर गांव में किशोरी शिक्षा शिविर में मेरा भी जाना हुआ। वहां गांवों की वे किशोर बालिकाएं थीं, जो पढ़ाई बीच में छूट जाने के चलते आगे नहीं पढ़ पाईं। ऐसी बालिकाओं को दसवीं या आगे की पढ़ाई की इन शिविरों में तैयारी करवाई जाती। वे बालिकाएं आगे की परीक्षा देती और आगे बढ़तीं। सैकड़ों किशोरियों के जीवन को अशिक्षा के अंधियारे से निकालकर ओझा ने उन्हें शिक्षा का उजियारा दिया। उनके इस प्रयोग ने एनजीओ की विश्वसनीयता बढ़ाने का काम किया है।
अरविंद ओझा ने परम्परागत हस्त उद्योग को पूरा संरक्षण दिया। ग्रामीण कसीदाकारी को पूरे देश में बाज़ार उपलब्ध करवाया कसीदाकारी करने वाली महिलाओं के काम को संरक्षण दिया। बालिका शिक्षा, बाल विवाह निषेध और बुनकरों को संरक्षण का काम सतत रूप से चलाया।
ओझा उरमूल सीमांत समिति के अध्यक्ष, उरमूल ट्रस्ट के सचिव और प्रौढ़ शिक्षण समिति राजस्थान के सचिव के रूप में कार्यरत थे। स्वयं सेवी संगठन कैसे काम करके साख बना सकते हैं, ये उनसे बख़ूबी सीखा जा सकता है। एनजीओ में काम करते हुए उनको कई तरह के विरोध का भी सामना करना पड़ा। लेकिन वे डरे नहीं, डटे रहे। प्रदेश में ओझा को स्वयं सेवी संगठनों का संरक्षक माना जाता था। समाज में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनको नमन।
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