हेम शर्मा, प्रधान संपादक
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19 November 2020 10:47 AM
बीकानेर। संगठन मायने बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करना. लोकतांत्रिक व्यवस्था में संगठन इसलिए बनाए जाते हैं ताकि सामाजिक, व्यवसायिक, कर्मचारी एवं समूहों के निहित हितों और विशेष उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके. कई संगठन सांस्कृतिक मूल्यों, आध्यात्मिक चेतना, समाज को संस्कारित करने और सकारात्मक दिशा देने का अच्छा काम भी कर रहे हैं। लेकिन मौजूदा सिनेरियो को देखकर लगता है कि कुछ संगठन पथभ्रष्ट हो गए हैं. क्या कई प्रभावशाली लोग इन संगठनों के निहित उद्देश्यों के इतर दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं? क्या इन संगठनों का मंच, सरकार और समाज में हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है ? आप अपने इर्द-गिर्द नज़रें दौड़ाएंगे तो कुछ ऐसा ही महसूस करेंगे.
कहने में गुरेज नहीं है कि आजकल कई संगठनों के मंच का इस्तेमाल उद्देश्यों के इतर होने लगा है. कहीं इनकी आड़ में सफेदपोश साफ-सुथरे बने घूमते फिरते हैं तो कहीं 'व्हाइट कॉलर क्रिमिनल्स' अपराधों से बचने के लिए इनका इस्तेमाल करने लगे हैं. कहीं स्वार्थी लोग इनके जरिये अपने हितों को साध रहे हैं तो कहीं इनके मंचों का खुला राजनीतिक इस्तेमाल होने लगा है. इसी तरह उद्योग और व्यापारिक संगठन मूल काम कम और दूसरे काम ज्यादा करते दिखाई दे रहे हैं. कई खेल संगठन, कर्मचारी संगठन के नेता इस मंच से अपने व्यक्तिगत हित ज्यादा साध रहे हैं. कई संगठनों के नेता अपराधियों को बचाने, काला बाजारी, भ्रष्टाचार औऱ अनैतिक कामों को आश्रय देते हैं. भ्रष्टाचार फैलाने के आरोप कुछ नेताओं और नौकरशाहों पर लगते रहे हैं. कई सामाजिक, व्यापारिक, कर्मचारी संगठन के नेता भी इसमें पीछे नहीं है. इन संगठनों की आड़ में कई प्रभावशाली लोग सत्ता से नाजायज फायदा ही नहीं उठाते, बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर अफसरशाही और नेताओं को हांकते भी हैं.
संगठन की आड़ में मंच, माला, साफा और स्मृति चिन्ह को हथियार बनाया जाता है. चापलूसी के साथ तारीफ के पुल नेताओं और अफसरों को घेरे में रखने के लिए काफी है. इससे भी आगे सब करने को तैयार हैं. ऐसे संगठन सटोरियों, दलालों और भू माफियों से पोषित हैं। बहरहाल, कई संगठन दिव्यांग और धूमाताओं की सेवा करने वाले भी हैं और कई प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र जैसों को गर्त में डालने वाले भी. बीकानेर की जनता बहुत भोली है, लेकिन वो मौन रहकर सबकुछ जानती-भांपती है. उसे एक उद्योग संघ द्वारा संयुक्त आयकर अधिकारी की तारीफ में एक समाचार पत्र में लिखा लेख बिल्कुल नहीं सुहाता, जिसमें वो अधिकारी की तारीफ में कसीदे पढ़ते नहीं थकते. उन्हें "कर्ममूर्ति, संकल्पित, निष्ठावान, दृढ़ निश्चय, सतत सक्रिय अधिकारी" और न जाने क्या-क्या कह देते हैं. हो सकता है कि यह अधिकारी इन गुणों के धनी हों लेकिन यह प्रमाण देने के लिए इस संघ के पास कौनसा नियामक बना हैं? कोई ये क्यों नहीं समझता कि "ये पब्लिक है, सब जानती है". संगठन को असल में वो करना चाहिए, जिनके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वो बने हैं.
समाज और व्यवस्था के अपने नैतिक मूल्य होते हैं, इन मूल्यों पर कुठाराघात नहीं किया जाना चाहिए. सत्ता के इर्द-गिर्द औऱ प्रशासन के आसपास यह कॉकस हमेशा सक्रिय रहता है जो संगठनों के मंच की आड़ में समाज और राष्ट्र को घुन की तरह व्यवस्था को खोखला करता रहता है। व्यवस्था उनका इंस्ट्रूमेंट बनती रहती है. ये उस संगठन और जनता दोनों के लिए ठीक नहीं है. सवाल यह उठता है कि ऐसा होने से उस संगठन की साख का क्या होता होगा? उस संगठन के सदस्य पर क्या बीतती होगी? उन्हें कितनी तकलीफ होती होगी कि उसका संगठन मूल उद्देश्यों से भटक गया है. और आख़िर में उस समाज पर इसका कितना असर होता होगा? तनिक सोचिएगा कि बदलाव की ज़रुरत है या नहीं?
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