हेम शर्मा, प्रधान संपादक
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06 September 2021 11:11 AM
बीकानेर । बीकानेर साहित्य सृजन की नगरी रही है। यहां कविता, कहानी, नाट्य लेखन और साहित्य की विभिन्न विधाओं में इतना काम हुआ है कि पूरे देश में बीकानेर की साख रही है। हरीश भदानी, नन्द किशोर आचार्य, भवानी शंकर व्यास विनोद, माल चन्द तिवारी सरीखे साहित्यकारों ने बीकानेर का नाम रोशन किया है. साहित्य का अर्थ होता है- जिसमें समाज का हित समाहित हो. लेकिन बीकानेर की बात करें तो यहां रचे जा रहे साहित्य में ऐसा कोई अर्थ नहीं निकल रहा। आज 'विमर्श' में इसी गंभीर विषय पर चर्चा करेंगे.
दरअसल बीकानेर में ऐसे 'वरिष्ठ' कवि, कथाकार, साहित्यकार की उपमा वाले लेखकों की बाढ़ आ चुकी है। भले ही समाज उनको वरिष्ठ कवि, कथाकार, साहित्यकार कहे या न कहें लेकिन वे स्वयं ही ये उपमा लगाकर 'स्वयंभू' हो रहे हैं। थोक में साहित्य लिख रहे हैं और विमोचन करवा रहे हैं। एक बार बाल कवि बैरागी ने उदयपुर में आयोजित एक साहित्यकारों के पुरस्कार समारोह में कहा था कि "मेरे पोते को मेरी एक कविता भी याद नहीं है, लेकिन मेरी माँ को रामचरितमानस और गीता कंठस्थ है।" कवि बैरागी की इस बात का बेहद गहरा मर्म निकलता है। यहां यह सवाल उठता है कि जिस साहित्य सृजन पर यहां के 'वरिष्ठ' साहित्यकार इतराते हैं, क्या उस साहित्य सृजन का समाज पर असर भी है ? दूसरा सवाल यह भी कि ये 'वरिष्ठ' कवि, कथाकार, साहित्यकार किनसे वरिष्ठ हैं ? प्रेम चन्द से? या हरीश भदानी, नन्द किशोर आचार्य, भवानी शंकर व्यास विनोद और माल चन्द तिवारी... आदि से? वो यह भी बताए कि साहित्य सृजन में वरिष्ठ होने का क्या अर्थ है? वरिष्ठ तो पद में होता है। समकालीन लेखकों से भी कोई कैसे वरिष्ठ हो सकता है ? योग्यता की देवी के साथ अयोग्यता वैसा ही मेकअप करके खड़ी हो जाए तो सृजनधर्मिता का क्या हश्र होगा, यह समझ लेने की ज़रुरत है।
असल में बीकानेर में साहित्यिक महिमामंडन की पराकाष्ठा हो गई है। हद तो इस बात की भी हो गई कि ये "वरिष्ठ" कवि, कथाकार, साहित्यकार ही एक-दूसरे की आलोचना करते भी नहीं थकते हैं। ज़रा एक बार वो अपने दिल पर हाथ रखकर ख़ुद से ही सवाल पूछ लें कि क्या उनकी सृजनधर्मिता का उनके इर्द-गिर्द भी असर है ? क्या आपकी 100-50 पुस्तकों के नाम भी यहां के साहित्यकार जानते हैं? अगर ऐसी ही स्थिति है तो फिर चाहे हज़ार पुस्तकों का एक साथ विमोचन करवा लें, आपके सृजन से समाज को कोई फायदा नहीं? भाई ! ऐसा 'सृजन' अहंकार को ही तुष्ट करता है। स्वयं ही 'वरिष्ठ' साहित्यकार मत बनो, इसमें आपका ही उपहास है. आपके साहित्य को समझने का काम समाज को करने दो, सिर्फ़ समाज को ही कहने दो कि आपकी रचनाएं श्रेष्ठ हैं। 'स्वांताय सुखाय' से तो सिर्फ़ स्वयं को ही सुख मिलता है.
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