हेम शर्मा, प्रधान संपादक
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24 November 2020 06:21 PM
"उसूलों पे जहाँ आँच आये तो टकराना ज़रुरी है.
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रुरी है"
वसीम बरेलवी के इस शे'र के मायने कांग्रेस को समझने बेजा ज़रुरी है. क्योंकि उसके उसूलों पर भी आंच आ रही है और वर्चस्व पर भी सवाल उठ रहे हैं. खुद कांग्रेसी नेता चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि पार्टी के प्रति जनता के विश्वास में कमी आई है. अकुशल नेतृत्व, परिवारवाद, पार्टी के भीतरी लोकतंत्र में कमी, पार्टी की रीति-नीति में तमाम खामियां समेत इसकी कई वजहें गिनाई जा सकती हैं।
जब घर के लोग ही पार्टी की खामियां गिनाने लगे तो अन्दाजा लगा सकते हैं कि कांग्रेस कितनी बदत्तर हालात में है.लेकिन सुने कौन? पार्टी का आलाकमान अपने ही 21 लोगों के मन्तव्य को अनसुना कर रही है। पी चिदंबरम चीख-चीख कर बता रहे हैं, कपिल सिब्बल का भी यही कहना है, गुलाम नबी आजाद भी कांग्रेस को खामियों से आजाद कर देना चाहते हैं. सबकी बातों का लब्बोलुआब है कि कांग्रेस फकत आसमानी बातें करती हैं, उसने आम लोगों से नाता तोड़ लिया है। न तो उसके पांव ज़मीन पर हैं और न ही ज़मीनी स्तर का उसका जुड़ाव। ऐसे में कैसे जनता का दिल में उतरा जायेगा?
कांग्रेस कार्यसमिति के स्थायी सदस्य सलमान ख़ुर्शीद भी पार्टी के नेताओं के रवैये पर खुश नहीं हैं। उनका यह कहना कि वे हार के लिए नेतृत्व को जिम्मेदार नहीं मानते। कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम के नेतृत्व को लेकर पुर्नविचार का मतलब यह भी नहीं कि शीर्ष नेतृत्व में बदलाव किया जाए। यह उनकी दबी जुबान है। खुद गांधी परिवार के प्रति साफ़गोई से बचना चाहते हैं। ख़ुद को बचाए रखने के लिए सच को मीठे गुड़ की चाशनी से लपेटते दिखाई देते हैं। वो यह मानते हैं कि कांग्रेस में ब्लॉक, जिला व राज्य में फासला बढ़ गया है। सलमान खुर्शीद ने खुद अपने लिए कहा है कि वे सुधारवादी हैं, विद्रोही नहीं। कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रुरत है।
लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस के भीतर कोहराम मचा हुआ है। शीर्ष नेतृत्व को धरातल की टोह तक नहीं है। कई कांग्रेसी लोग पार्टी को रसातल में ले जाने को दोष सीधा सीधा राहुल गांधी को ही देते हैं। कौन कितना समझ पाता है यह तो भविष्य ही बताएगा। परन्तु कांग्रेस पार्टी का भारतीय लोकतंत्र के लिए जिंदा रहना जरूरी है। पार्टी पर वर्चस्व बनाए रखना चाहने वाला नेतृत्व इस सच को जान लें, नहीं तो और बुरा हश्र होना ही है। कांग्रेस का यूं गर्त में जाना भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। जाने कब कांग्रेस को इल्म होगा कि उसके उसूलों पर आंच आ रही है, जाने कब वो समझ पाएगी कि उसका भी कोई वजूद है. और अगर कांग्रेस को इन बातों का इल्म है तो फिर वो काहे नहीं टकराती है?
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