हेम शर्मा, प्रधान संपादक
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15 December 2020 10:35 AM
हे लोकतंत्र के पुजारियों !
'लोकतंत्र'... अहा ! सुनने में यह शब्द कितना मनोहर लगता है. लोक का अर्थ 'जनता' और तंत्र का अर्थ 'शासन' होता है. जनता उसी लोकतंत्र की पूजा करने के लिए पुजारी चुनती है, जिन्हें हम राजनेता पुकारते हैं. मगर अफसोस ! लोकतंत्र के पुजारी वैचारिक रूप से इतने रुग्ण होते जा रहे हैं कि इनका मन लोकतंत्र की पूजा में नहीं रमता. और जब पुजारियों का मन ही मलिन हो जाएगा तो लोकतंत्र रुपी मंदिर भी अस्वस्थ होता जाएगा.
बात किसी 1-2 राज्य या राजनेता की नहीं है बल्कि समूचे भारतवर्ष की है. गोया ऐसी कोई बयार सी बह गई हो. पश्चिमी बंगाल में ममता बनर्जी बनाम बीजेपी हो या फिर कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार बनाम पार्टी के 23 नेता. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बनाम कांग्रेस हाईकमान हो या फिर राजस्थान में गहलोत बनाम पायलट. राजस्थान प्रदेश में वसुधंरा राजे बनाम बीजेपी का विरोधी खेमा हो फिर देवी सिंह भाटी बनाम केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल. हर तरफ बगावतें बिखरी हैं और अदावतें अकड़ी हैं. सरकारें गिराई जा रही हैं, वोटबैंक की राजनीति के चलते मूल्यों की राजनीति भेंट चढ़ रही है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही वगैरह-वगैरह.
ऐसे में आपको पुजारी बनाने वाली हम जनता आपसे पूछना चाहती है कि क्यों आप पर सत्ता की लोलुपता इतनी हावी हो गई है? क्यों आप लोकतंत्र की जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते? क्यों आपने स्वार्थ, मान, बड़ाई और अहंकार की चादर ओढ़ ली है? क्यों आपने ईर्ष्या और द्वेष को अपना आभूषण मान लिया है? आख़िर क्यों आपको सही और ग़लत का भान नहीं रहने लगा है? एक बात पूछें? कहीं सत्ता के मद में आपका मानसिक संतुलन तो नहीं बिगड़ गया है?
हम आपसे उम्मीदें लगाए बैठे हैं कि आप जनता के साथ खड़े होंगे. जरुरतमन्द का सहयोग करेंगे, स्वच्छ वातावरण तैयार करेंगे, ग़रीब और राष्ट्र की अंतिम इकाई को सम्बल देने का काम करेंगे. इस लोकतंत्र की पूजा करेंगे. लेकिन आप...! अपनी अंतरात्मा से पूछिए, क्या आपको ये जिम्मेदारी महसूस नहीं होती? क्या आप समाज के ऋण से उऋण होना नहीं चाहते? क्या आपका राष्ट्रधर्म पूरा करने का मन नहीं करता? क्या आपको ईश्वर द्वारा प्रदत सामर्थ्य का सदुपयोग करने का मन नहीं करता? क्या आप जनतंत्र को मजबूत करने और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भागीदारी नहीं देना चाहते? अगर आपका जवाब 'हां' है तो संसद में लगी बापू की प्रतिमा को देखकर मंथन जरूर कीजिएगा, जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया था.
हे लोकतंत्र के पुजारियो ! अब तुच्छ स्वार्थ छोड़ दीजिए, उठा-पटक की राजनीति से ऊपर उठकर समाज को दिशा दीजिए. ईर्ष्या-द्वेष त्यागकर निर्लिप्त भाव से जीवन को समर्पित कर दीजिए. आप भी जानते हैं कि समाज में आपकी अलग अहमियत है, इसलिए उस अहमियत के होने को साबित कर दीजिए, लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रहे, ऐसे डग भरिए. सुनिए ! अब लोकतंत्र की सच्ची सेवा कीजिए न !
कहते हैं कि जो मन के अंदर होता है, दरअसल मंदिर तो वही होता है. और जिसका मन ही मैला हो, तो उसकी स्तुति में फिर कितना असर होगा? इसलिए हे लोकतंत्र के पुजारियों ! वैचारिक रुग्णता को दूर कीजिए तभी लोकतंत्र की सच्ची सेवा हो पाएगी. आप स्वस्थ रहेंगे तभी लोकतंत्र स्वस्थ रहेगा.
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